पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५५५

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.कालक-कालकण्ठक नारी। ३ जतुक, सन्तो। बघाडपुगण में भी लिखा है,- कान्नकचु (सं• स्त्रो.) काला क्षणवर्ण कचुः कर्मधा। "सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि चारो कालके कचुभेद, कालो घुझ्या। मुग्न हैं। सत्य युग चार जिवाविशिष्ट खेतवर्ण, त्रेता | काम्न कच्चाई (सं० क्लो०) सूर्ण विशेष, एक बुझनी। विडिद्वाविशिष्ट रलवर्ण, द्वापर युग हिजिह्वा धूम, यवक्षार, पाठा, व्योप, रसानन, तेजोता, विशिष्ट रक्त पिङ्गलवणं एवं भयङ्कर ; और कलि-पुन: त्रिफना, चिवक और शुद्ध लौह वराबर बरावर कूट पुन: लिवामान पकनितायुक्त रक्ताचक्षुविशिष्ट कृष्णव पोम चौद्र के साथ मुख में रखनसे दन्त, मुख तथा होता है। ब्रह्मा, विष्णु और यज्ञ तीनों धान गन्नरोग विनष्ट होता है (चक्रपापिदव) कलास्वरूप हैं। समुदाय चराचर में कान्तके लिये कालशन (सं० लो०) कालं कृष्णवर्ष कश्नम, असाध्य कुछ भी नहीं। काम्न ही सर्वभूत सृष्ट कर्मधा। १ नोलपन, काला कंवल । (पु०)२ कोई कर फिर क्रमशः रहार करता है।" दानव। कान्त कटट (सं० पु०) कानरूपः कटइष्टः, मध्य- (माए० पनपा, ३२०) पदन्तापी कर्मधा। शिव, महादेव । कानक (सं. क्लो) कान स्वार्थ कन् यहा कलयति एवो पपयो साडी खसी कालकटकटः" (मारस, पनुयामन ५००) मोदयति ताम, कल- णिवुल। १कानशाक, कार.शाक देखी। २ यरुत, गुग्दा। (पु०) कालत्रएट क (सं० वि० ) कानः कष्णवर्णः कण्ट को ४ अलगद सर्प, पानीका एक ऽस्य, वहुव्रौ।। कृष्णवर्ण कण्टकयुक्छ, काले-कांटे. सांप। ५ राक्षसविशेष, एक आदमखोर। ६ चक्षुका बान्ता। (पु.) कालकर देखो। कृष्ण अंश, खकी पुतनी। ७ वीजगणितोत कालकण्ट करस (सं० पु.) रसविशेष, एक दंवा । अव्यक्त राशिको एक संज्ञा । ८ जनपदविशेष, एक होरकभस्म १ भाग, पारद २ भाग, पभ्र ३ भाग, पत्नलिके महाभाष्य मससे उक्त स्थान स्वयं ४ भाग, ताम ५ भाग, और तीक्ष्ण नौकिक प्राचीन आर्यावर्तको पूर्व सीमा था। (पा २०१० महामाप्य ) ६ भाग अश्मनगंमें ३ दिन मर्दन करते हैं। फिर - कोई प्रसिह जनसूरि। वह महावीर निर्णय यवक्षार, मणिहार, मोहागा, और पश्च लवण उस ४३५ वर्ष पोछे जीवित थे। किसीके मतानुमार उन्होंने मदित द्रव्य के समान डान्द ३ तीन दिन निर्गुण्डिकावे पयु.पणापर्व बदला था। कानक ही गर्दभिन्न रसमें रगड़ा जाता है। सूखने पर चर्ण वना अष्टमांग वसके कारण थे। १० कोई जैनसिह। पहले भाट्र: विषक्षण एवं सोहागे का फना मिझा कर १ दिन पदकी शुक्लपञ्चमीको पर्युषणापर्व होता था। अनेक | निबूके रस में घोटनसे यह औषत्र प्रस्तुम होता है। सोगोंके मतमें उन्होंने महावीर-निर्वाणके ८१३ वर्ष मावा २ गुना है। पाट्रकके रस में यह खाया जाता पीछे अर्थात् ५२३ विक्रम संवत्को पञ्चमोसे चतुर्थी है। इसके सेवन से वातरोग पारोगा होता है। (रसेन्द्रपितामविर.) तिथि पर्वदिन स्थिर किया था। इनकेही मतानुमार खेताम्बर जैन पर्युषण पर्व मानते हैं। परन्तु दिगम्बर कालवण्ठ ( स० पु. ) कानः कृष्णव: कठो यस्त्र, जैन अब भी वही महावीर स्वामी द्वारा उपदिष्ट शुक्ल बमो.। १ शिव, महादेव । २ पीतशाल वृक्ष, प्रसने- चमोकोही प प्रारंभ करते हैं। (वि.) ११ काल. का पेड़। ३ मयूर, मार । ४ खन्ननपक्षी, खरंचा। वर्ण युक्त, काला। १२ अनित्य व विशिष्ट, कच्चे. ५ कसविड, चिड़ा । ६ जन-कुछट, मुरगयो। . गंगवाला। १३ रक्तवर्ण, सुख, लाल । कासमक्ष, कमोदी। ८ अन्धकाक, अंधा कौवा । कालकट (सं० पु.) गिलीच फलक्ष, गिलोटका कालकण्ठ (म. पु.) कानः क्षणः कण्डम काम-कहकप् काखकण्ठ स्वार्थ कन् था। १ दाम्बर वसती। o पड़।