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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५८३

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le ३८४ कालिकांमुख-कालिङ्गमान ब्राह्मणको दे दिया। इस प्रकार इन्द्र के निकट अवज्ञान | कालिकास्थि ( सं० लो• ) नेवास्थिविशेष, प्रांखको हो ब्राह्मणने उन्हें अभिशाप किया था,-'तुम घिड़ाल एक हड्डी। रूप ग्रहणकर अन्ताज जातिके हमें रहोगे।' तदनुसार | कालिकेय (सं० पु०) कोई असुर जाति। वह दक्षको इन्द्र मार्जाररूपसे किसी व्याध घरमें रहने लगे! कन्या कालिकाने उत्पन्न है। उधर शचीन इन्द्रका कोई अनुसन्धान न पा आहार कालिख (हिं. छो०) कालिका, स्याही, काचौंछ । निद्राको छोड़ा था । उन्होंने देवसे उनका पता पूछा। वह एक प्रकारको बाग वुकनी रहती है, जो धूयेके देवोंने ध्यानके बल इन्द्रको मार्जागरूर अवस्थित टेग्द जमनेसे वस्तु पोंमें लगती है। शचीसे उनको मुक्तिके लिये उक्त शापदाता ब्राह्मएको कालिगल-१ वङ्गन्देशीय यगोहर पञ्चनके खुलने सेवा करने को कहा था । शचीने यथाशशि परिचर्या विभागका एक गगड़ ग्राम । वह अक्षा• २२२७१५ द्वारा झिगको परितुष्ट किया। उन्हों न इन्द्र का प्रप उ० पोर देशा०८८४ पू. में यमुना एवं कामियाली राध मार्जमा कर उनको मुनि के लिये शचोस शानिक नटोके सङ्गमस्थान पर अवस्थित है। नोकसंख्या साढ़े व्रतका अनुष्ठान करने को कहा। इसी प्रकार कालिका- पांच हजारसे अधिक है। वहां अच्छा वाज़ार नगता व्रतको उत्पत्ति हुयो । उसके अनुष्ठान की प्रणालो और खूब वाणिज्य चलता है। जानवरों के सौंगसे छडी नीचे लिखी है-शुद्ध कालको किसी कृष्ण चतुर्द शोका बनानका एक कारखाना भी है। २ वङ्गालक रंगपुर सङ्कल्प कर दूसरे दिन अमावस्याको स्वयं रात्रिभोजन, जिलेका एक ग्राम । वह ब्रह्मपुवके तौर अवस्थित है। वाम इस्त हारा भोजन एवं मत्स्य, पिष्टक, रतशाक प्रासाम धान जानवालांकि टासर वहीं नगते हैं। और अम्ल भोजन परित्याग कर ६२ सधवा स्त्रियांको | कानिङ्ग (सं० ला) कैन जलेन पान्तियतेऽसौ, क- खिलाना चाहिये। इसोप्रकार कुछ दिन व्रत आचरण प्रालिगि कर्मगि घ । । तरम्ब विशेष, किमी पोछे किसी शुद्ध मङ्गलवारयुक्त अमावस्याको हक किस्मका तरवूज । उसका संस्कृत पर्याय-कानिन्दका, प्राङ्गणमें कदलीकाण्ड से रह बना उसमें कालिका कृष्णवीज चोर फलवर्तन है। वह शीतल, मनरोधक, मूर्ति स्थापन को जाती है। फिर अपराह्न, सन्ध्या मधुररस, पाकमें मधुर, गुरु, विष्टम्भि, अभिष्यन्दकारक, अथवा रात्रिकालको यथाविधि पाद्य, प्रय पाचमनीय. कफ एवं वायुवर्धक और दृष्टिशक्ति, शुक्र तथा पित्त- गन्धपुष्प, धूप, दीप, तथा विविध नैवेद्य प्रकृति उप- नाशक होता है। पक्वफल पित्तविकारक, उपाय, करणसे देवीको पूजा होती है। पूजा समाप्त होनेपर क्षार और कफ ए वायुनाशक है। पिष्टक, सिहान, व्यन्जन प्रभृति बलि किसो वमके मध्य रक्तस्थापक होता है। (पथ्यापथ्यविवेक ) (पु.)२ भूमि-- देना चाहिये । इसप्रकार कालिकाव्रत करनेसे सत्वर कारु, एक कुम्हड़ा । ३ हस्ती, हाथी । ४ सर्प, कार्य सिद्धि होती है। मांप । ५ लौहविशेष, एक नोहा। ६ कूटज कालिकामुख (सं० पु०) कालिकाया मुखमिव मुरवं ७ इन्द्रयव । (वि.) कनिदेशात, यस्य, बहुव्रो । एक राक्षस । (रामायण ३ । २६ प.) कलिङ्ग मुल्क पदा हुआ। ८ कलिङ्गदेशके राजा । कालिकाशाक (सं• पु०) कालशाक, नाड़ी। "प्रतिजग्राह कालिा: तमस्त्रं नसाधनः । कालिकाश्रम ( म० लो०) कालिकाया पाश्रमम्. पचवेदोरगं गत् शिक्षाववि पवंतः" (रघुवंशा). ६-तत् । विपाशा नदोतोरस्य एक नोर्थ । महाभ रनमें कालिक, कालिद देखो। लिखा है कि उक्त तीथमें तोन रात्रि ब्रह्मचारी और वासिङ्गमान (म.ली.) कानिङ्गदेशप्रचलित मान- जितक्रोध रहने पर भवयन्त्रणासे मुक्ति मिलती है भेद, कनिमल्क को तोल । यथा-१२ सर्व पका यव, २ यवको गुना, ३ गुजाका बल्ल । ८. या गुनाका "कालिकाश्रममामा विपाशा कृतोदयः । ब्रह्मचारी नितक्रोधस्त्रिराव मुच्यते भवात् ॥” (भारत, पन. २५७०) माष, और ४ माषशा शायशाता है। (भावबाग): पत्र तिक्त और एक पेड़ ।