पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५९

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- काम्बोज इसका जैसा बहत् मन्दिर प्रति .अल्प हौ देख पड़ता :धनुर्वाण लिये युद्ध में व्याप्त है। युद्धस्थचसे अदूर है।.. मन्दिरका आयतन कोयो प्राध कोस होगा। जटाजूटविचम्वित महादेवको मूर्ति है। सिपि इसका.परिवेष्टक प्राचीर १०८०४११०० फीट पड़ता, योगी पुष्पकरसे उनकी अर्चना कर रहे है। जो चारो ओर २३० फीट विस्तृत खात द्वारा घिरता उत्तरभागसे ईषत् पूर्व दूसरा मञ्च है। यहांका है। खातके ऊपर मन्दिर जाने के लिये सुदृढ़ सुरम्य शिल्पनैपुण्य और स्थापत्य कार्यादि अभौतम शेष नहीं स्तम्भ परिशोभित सेतु बंधा है। सेतुके . भाग गोपुर हुवा। सकल हो मानो असम्पूर्ण पड़ा है। यहां है। उसके .मध्यसे . मन्दिरके वहिप्राङ्गणको जाना भी पौराणिक दृश्य है। विषणु गरडोपरि प्रारोहए पड़ता है। कर किसी गजारोहौ मसुरको मार रहे हैं। दूसरी नैऋतकोणसे मन्दिरमें घुसनेपर वाम दिक् अपूर्व | भी अनेक देवासुरमूर्ति असम्म अवस्थामें पड़ी है। दृश्य नयनगोचर होता है। यहां भीषको शरशय्या पूर्वदक्षिण भागमें समुद्रके मन्यनका दृश्य है। क्या बनी है। मध्यस्थलमें कुरुपितामह भीष्म शरशय्यापर शिल्पकार्य, क्या चित्र काय, क्या स्थापत्यविद्या सर्व शायित है। उनकी दोनों ओर मुकुट एवं किरीट विषयमें इस मञ्चने पराकाष्ठा यायो है। बोध होता--. शोभित कुर तथा पाण्डवपक्षीय वौर खड़े और गज समुद्रके मन्यनका ऐसा जीवन्त दृश्य दूसरे स्थानपर एवं रथपर तेजःपुन महारथी चढ़े हैं। पितामह कहीं नहीं। मध्यस्थलमें कूमके ऊपर मन्दराचल मोपसे अनतिदूर गजके ऊपर राजा दुर्योधन स्नान- स्थापित है। उसके ऊपर विष्णु बैठे हैं। मन्दर वदन अपेक्षा कर रहे हैं। शत शत वर्ष गत होते भी वासुकी द्वारा वेष्ठित है। नागराजके मुखकी पोर' इन मूर्तियोंमें कोयो वैलक्षण्य नहीं पड़ा। यह प्रस्तर प्रायः एक शत विकटाकार दैत्य और पुच्छभागमें एक खोदित सकल मूर्ति दूरसे देखनेपर जीवन्त बोध शत देवमूर्ति है। दैत्य खवं, बलिष्ठ, शिरस्त्राण एवं होती हैं। कवचात, कर्नामें कुण्डल पहने और लम्बी दाढ़ी मन्दिरके मध्य पश्चिमोत्तर रामायणका दृश्य रखे हैं। देवोंके मस्तकपर मुकुट, कण्ठ में हार, है। राक्षस और वानर घोरतर युद्ध कर रहे हैं। हस्तमें वलय, दो-दो अङ्गद और यज्ञसूत्र शोभित है। विकट मूर्तिधारी राक्षसवीर रथपर बैठ वाण वरसाते यह दोनों सौ मूर्ति एक भावसे खड़ी हैं। हैं। मध्यस्थल में राम हनमान् पर चढ़ रावणके प्रति जहां समुद्र मथा जाता, उसके उपरिभागका दृश्य वाण निक्षेप करते हैं। उनके दोनों पाखं लक्ष्मण अति चमत्कार देखाता है। मानो शत शत वर्ग- और विभीषण दण्डायमान है। सिंहयोजित रथपर विद्याधरी और अप्सरा धाकाशके पथमें नृत्य करती रावण रामके शरपीड़नसे जर्जरित हो बैठा है। हैं। फिर अधोभागर्म सागरका दृश्य है। नाना उत्तर-पथिम भागमें देवासुरके समरका दृश्य है। प्रकार सामुद्रिक जीवजन्तु मत्स्यादि इस कल्पित विविध मूर्तिधारी मुकुटशोभित देव शखयोजित रथपर समुद्र में खेलते फिरते है। स्वच्छ सलिनम कैसे धौरे चढ़ वाण फेंकते हैं। विकट मूर्तिधारी असुर भी जो. धोरे स्रोत चल रहा है। शेड़ लड़ रहे हैं। यहां की मूर्तियों में सूर्य और दक्षिणपूर्व भागमें दूसरा मञ्च है।. यहां यमा- लयका दृश्य विद्यमान है। पापका निग्रह और चन्द्रदेवको ज्योतिर्मय मूर्ति अति सुन्दर है। देव खल वाहनपर भारुढ़ हैं। पुण्यका पुरस्कार देख पड़ता है। स्वर्ग एवं नरक उत्तरपूर्व मध यहां भी देवासुरका युद्ध है। चतुरा और सुख तथा दुःखका दृश्य प्रदर्शित हुवा है। नरक. नन, पञ्चामन, षडानन और गरुडोपरि शङ्ख-चक्र गदा- यन्त्रणाकी ३६ मूर्तियां खोदी गयौ हैं। प्रत्येक पद्मधारी विष्णु असरदलन करते हैं। वह मुख एवं मूर्तिके नीचे खोदित लिपिमै लिखते- इस प्रकार पाप . कमानेपर मन से ही नरकभोग करते हैं। बास्तविशिष्ट देव प्रख, गज, सिंघ वा गैडेपर चढ़ .