पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५९४

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प्रात कालिदासः अपने नायकोंके लिये वेद सुंदते और किसी दिव्य वा | भौतिक सौन्दर्य दिव्य मावोंके सामने सुच्छ है.। दिव्य पुरुषको अपने अन्यका नायक चुनते हैं। यकुम्सलामें भी वा स्वर्ग के उस स्थानमें पहुंच गये, उनका दूसरा नाटक विक्रमोशी है। उसके दृश्य जहां पृथियोको कामिनी जा नहीं सकती। पृथिवीसे बदलकर पाकाश पर पहुंच गये हैं। किन्तु परन्तु उनका अन्तिम और विशाल अन्य रघुवंश उनका प्यार भी उत्साह और प्रतिको प्रशंसा है.। उसमें उन्होंने ईश्वरके अवतारोंका वर्णन किया करना उनमें अभी कम नहीं पड़ा है। है। इसमें कालिदासने वाल्मीकिसे सामना किया है। उनको कविता पर दूसरा परिवर्तन पड़ता है। किन्तु कालिदास उनसे बहुत भागे निकल गये है। वेदों से वह प्रसन्न नहीं होते । वह अधिक शुष्क और वाल्मीकिन केवल रामका ही वर्णन किया है। परन्तु अधिक कपाविहीन थे। इसलिये वह वेदों को छोड़ कालिदामने उनके पूर्वपुरुषों का भी वर्णन कर कई देना चाहते हैं। वह अपनी उपासनामें प्रकाश दिव्य गुणों का परिचय दिया है। दलीपमें अधीनता, खोजते और शैवमत अवलम्बम करते हैं। अब वह घुमें शक्ति, अजमें प्रेम, दशरथमें राजोचित गुण और चाहते हैं कि अपने देवको उचित प्रशंसा करें। राममें उक्त समग्र दिव्य गुणों का पूरा पाभास पाया उन्होंने पृथियो और वायुके प्रत्येक द्रव्यको भन्नी जाता है। इसी क्रमसे कानिटासके समय य लिखे भांति समझ बूझ लिया है। अब उन्हें पाकागको गये हैं। उनके देखने से मालूम होता है कि, कादि- पोर ध्यान देना है। मेघदूनमें जहां उन्होंने अपनी दासने अपने विचार धीरे धीरे बढ़ाये हैं। कविता समाम को घी, वहोंसे वह प्रारम्भ करते हैं। पदाकि वएनसे प्रारम्भ कर उन्होंने अवतारों का दृश्य इन्द्रपुरीसे ब्रह्मलोक और ब्रह्मलोकसे शिवनोक खरूप और ईश्वर तथा मनुष्य का सम्बन्ध दिखा. को पहुंचता है। उन्होंने कामदेवके भस्म होने की दिया है। वास लिख सौन्दर्यका अच्छा वर्णन किया है। उसके अब यह विषय विचारगोय है-क्या उसातो पीछे उनको प्रौति पारलौकिक हो गयी है। पुस्तक एकही नयकारके लिखे हैं। इसमें सन्देश पार्वती शिवसे मिलना चाहती हैं, शरीरसे नहीं- नहीं कि-रघुवंश और कुमारसम्भव एक ही कविके प्रामासे । “देशक इतिहासमें ऐसी प्रीतिका भाव वनाये हैं। कारण उक्त दोनों पुस्तकों की रचना मिनती अज्ञात.था। इसी अलौकिक प्रीतिके सहारे कास्ति- तुलती है। फिर. गकुन्तला मी उह्य दोनों पुस्तकों- 'दासने अपने इष्टदेवका गुणगान किया है। के रचयिताको ही लिखी है! कारण एकका सूक्ष्म पहले उन्होंने ऐहिक और पीछे पारलौकिक विषय लिखे हैं। पहली बात तो साधारण थी। उसका भाव दूसरे में बढ़ा दिया गया है। विक्रमोर्व थोके भी

नैतिक उद्देश्य सन्देहपूर्ण था। फिर उनकी दूसरी वात

४) , अध्यायका भाव मेघदुत. और कुमारसम्भवमें 'लोगों को समझमें भाती न थी। इसलिये उन्होंने विद्यमान है। ऋतुसंहार और मालविकाग्निमित्रके अपनी वृद्धावस्था: मानुषिक और देशी भावोंक सम्बन्ध, समान्दोचकों का मत नहीं मिलता। परन्तु मिलानेकी चेष्टा कर दो ग्रन्थ लिखे, जिनको प्रशंसा ध्यानपूर्वक विक्रमोर्वशी,. शकुन्तला .और माल- 'समग्र नगत् मुक्त कण्ठसे करता है। उनका शकुन्तला विकाग्निमित्र पढ़नेसे तीनों ग्रंथों के भाव मिलते नाटक ऐहिक और पारलौकिक भावोंका मिश्रण है। और तीनों गंथ - एक ही ग्रंथकारके लिखे मालम शकुन्तला पृथिवी और स्वर्ग दोनोंसे सम्बन्ध रखती है। पड़ते हैं। लोगों का यह कहना कि मालविकाग्निमित्र कुमारसम्भव पौर शकुन्तलामें उनका स्त्री सौन्दर्य | किसी दूसरे कविका लिखा है, विन्तकुन झूठ विचार बहुत बदल गया है । कुमारसम्भवमें कामदेव कारण कालिदामके भावों का ऐसा अनुकरण दूसरा महादेवका ध्यान डिगा न सके और पार्वतीके पोछे उस समय कर न सकता था। खाकर छिप रहे। इससे यही भाव निकलता है कि जिन्हें लोग कालिदासका अनुकरण समझाते, वह Vol. IV. 150