पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६२९

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६३२ काशी अनुसार युहव्ययनिर्वाहा) गवरनर जनरम्म वारन निकटवर्ती तीर्थ समझ पड़ते हैं। गिव, मसा, कुर ष्टियसने चेत्सिंहसे उनके देय वार्षिक करको छोड़ गरुड़ और लिङ्ग प्रभृति पुराणांक मतमें कागोका हो ५ लाख रुपया अधिक मांगा । प्रथम चैमिहने ५ अपर नाम अविमुक है। किन्तु महाभारत में दो स्वतंत्र लाख रुपया दिया था। द्विनौय वर्ष इमो प्रकार ५ तीर्थ करने का कारण क्या है? काशीख राह में विहे. लाख देनेका समय पाने पर चेसिइने दृष्टिग गव श्वर और अविमुकवर नामक स्वतन्त्र शिवलिङ्गका रमेण्टसे कुछ मोहलत मांगी। उससे वारन हेष्टिङ्गस विवरण दिया है । सम्भवतः अविमुहावर निद्ग के उनसे कुछ ही समन्च काशी जा पहुंचे । चेत्सिंह विरान करनेका स्थान हो अविमुक्ततौर्य नामसे ख्यात निरुपाय ही आत्मरक्षार्थ राजधानो छोड़ भाग गये । था । वस्तुतः पविमुक्रतीर्थ वाराणसी के हो अन्तर्गत है। (१८९० ई० को ग्वालियर में उनका मृत्यु, हुवा ।) हरिवंशर्म महादेवके वाराणमौगमनका विषय वेल्सिहके भाग जान पर बलवन्तसिंहको कन्याने इस प्रकार लिखा गया है-- वारन हष्टिङ्गमसे कहला मैजा कि वह बलवन्तसिह. "राजर्षि दिवोदाम महामहिगानी वाराणमी को एक मात्र कन्या है और उनका पुव ( बन्लवन्तका नगरी पाकर मुखसे वहां रहने लगे। उस समय देवा- दौहित्र ) महीपनारायण ही राज्य का प्रशात उत्तराधि दिदेव दारपरिग्रह कर व शरानयम वास करते थे । कारी है। हैष्टिङ्गसने महीपनारायणको वाराणसीका महादेवके श्राजानुसार उनके पारिषद नाना उपायसे प्रकृत राजा बना दिया। १७८१ ई. को १४वीं सित. भगवती पार्वतीको रिझाने लगे। देवो पावती बहुत म्बर की महीपनारायणने बटिश गवरमेण्टसे वाराणसी | हो सुखी हुयों। किन्तु उनको जननी मेनकाको अच्छा नमीन्दारीको सनद पायी थी । राजा महोपनारायणके नलगा। वह अनेक ममय उभयको निन्दा कर कहती स्वगंधासी होने पर महाराज उदितनारायणने पिट थों-पार्वति ! तुम्हारे स्वामी पारिषदगणक सहित सिंहासन लाम किया । १८३५ ई० को उदितनारायण विचार-प्राचार-नष्ट और दरिद्र है । उनमें कुछ भी भी खगंगामी हुये । उनके भातुपुत्र ईश्वरीप्रसाद शोलता देख नहीं पड़ती। एक दिन खामोको निन्दा नारायण राजा बने थे। वह एक कवि और शिल्पी रहे। सुन देवी पार्वती नीखभाववशतः अहो गयीं। किन्तु उनके स्वहस्तनिर्मित विविध हस्तिदन्तके कारकार्य उस समय मातासे मनका भाव छिपा ईषत् हंस पड़ों। रामनगरके राजभवन में विद्यमान हैं। १९ ८० को फिर उन्होंने महादेवके पास जाकर विषम वदनसे उन्होंने परलोक गमन किया । अाजकल उनके पुत्र कहा था-'देव | अव म यहां न रहेंगी। हमें अपने राजा प्रभुनागयण सिंह वाराणसोको जमीन्दारीका भवन ले चलिये। उस समय महादेवने एक वारी स्वत्व भीग करते हैं। सकल लोकको निरीक्षण किया। अवशेषको पृथिवी तीर्थ विवरण। वाराणसी. नगरी बहुत प्राचीन पर हो वासस्थान निर्णय कर सिक्षेत्र वाराणसी कालसे हिन्दुओं का प्रतिपवित्र तीर्थ कही जाती है । भगरीको चुना था। किन्तु उसे दिवोदास द्वारा पधि- महाभारतमें लिखा है,- कृत सोच उन्होंने स्वीय पारिषद निकुम्भसे कहा- "वाराणासी जा वृषभवाहन महादेव का पर्चन 'वस। वाराणसीपुरी जाकर कौशन क्रमसे जनशून्य और कपिलाइदमें स्नान करनेसे राजसूय यज्ञ का फन्त करी। किन्तु सावधान ! महाराज दिवोदास प्रति मिलता है। उसके पीछे प्रविमुक्तासोथै पहुंच देवादि- देव महादेव का दर्शन करनेमे ब्रह्महत्याजनित पार “निकुम्भने वाराणसी नगर जा काक नामक छूट जाता और वहां प्राणत्याग करनेसे मोन पाता किसी नापितको स्वप्न में दयं न दे कहा था-देखो ! है।" ( उद्योगपर्व,८४०1) महाभारतके 'उत विवरण तुम इस नगरीके प्रान्त भागमें कोई स्थान निर्दिष्ट कर- पाठसे वाराणसी और अविमुक्ता दो स्वतन्त्र परस्पर हमारी प्रतिमूर्ति स्थापन करी । हम तुम्हारा भला काशी वा पराक्रान्त हैं।