पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६३०

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! । काशी करेंगे।' रात्रियोगमै उक्त खप्न देख उसने दूसरे दिन जावो।' त्रिपुरान्तक महादेवने स्वयं वाराणसोको अधि- महाराज दिवोदासको सब वृत्तान्त ना सुनाया। फिर मुक्त कहा है। इसीसे वह अविमुक्त नामसे विख्यात उसने नगरके हारपर निकुम्भको मूर्ति स्थापन कर उक्त हुयी है। वाराणसी इसी प्रकार अभिशप्त हो अविमुक्त विषय नगरको चारोदिक घोषणा किया फिर महा. कहलायो । वहां सर्वदेवनमस्कृत महेखर सच, वेता समारोहसे गणपति निकुम्भकी पूजा होने लगी। गणे. पौर हापर तीन युगमै देवीके साथ परम सुखसे वास खर पुवार्थीको पुत्र, धमार्थों को धन, प्रायुप्रार्थों को करते हैं । कलियुग पानसे वह अन्तहित हो जाती पायु, यहां मक कि लोगों को मुह मांगा वरदान देते है। किन्तु महादेव उसको परित्याग नहीं करते।" थे। किसी समय दिवोदास प्रादेशी महिषो सुयगा काशीखण्ड में निखा है-"देवदेव महादेव ब्रह्माके ने विविध उपचार गणपतिको पूजा और अंतमें पुत्र- वाश्य प्रतिपादन को काशी छोड़ मन्दरपवत पर ना साभका मांगा। उनके बार बार जाकर यथाविधि कर रहे थे। महादेवके गमन करने पर समस्त देव- पईना पूर्वक पुत्र कामना करते भी निकुम्भने स्त्रीय भी मन्दर पर्वत पर उपस्थित हुये । महादेव वहां अभिष्ट सिडिकै निमित्त वरदान न दिया। उसी प्रकार जाकर त हो न सके, उनके मनमें काशीका विरह दीर्घकान निकल गया। निकुम्भके पाचरणसे दिया। भड़क उठा। उस समय वाराणसी महाराज दिवोदास- दास बिगड़े और कहने लगे-'यह भूत इमारे ही की राजधानी थी। तपस्याकै बससे उन्होंने समस्त सिंहद्वारपर रहता है। नागरिकॉपर सन्तुष्ट हो शत देवगणका रूप धारण किया था। इसलिये देव उनको शस वर देता, किन्तु किसलिये हमसे मुख फेर लेता स्तुति और भजना करते थे । असुर भी सर्वदा उनके है। हमने व्याग्र हो महिषीद्वारा पुत्र प्रार्थना किया, स्तवम लगे रहते थे। उनके समान धार्मिक प उस किन्तु, प्राधयं । कतन्नने हमको वर प्रदान न किया । समय कोई न था। दिवोदासका ही अपर नाम रिपु- पतएव अब इसकी पूजा विधेय नहीं। विशेषतः हमारे अधिकारमें फिर वह किसी प्रकार पूजा न पायगा । "मन्दरपर्वतपर महादेवने काशीका विरह उप- हम दुरामाको स्थानभ्रष्ट कर देंगे। ऐसा ही स्थिर स्थित होनेपर देखा कि राजा दिवोदासको किसी कर राजा दिवोदासने गणपतिका वह स्थान तोड़ प्रकार निकाल न सकनेसे वाराणसी लाभ होता नथा। डाला । निकुम्भने पायतन टूटा देख राजाको अभि प्रथम उन्होंने ६४ योगिनीको कापी भेजा था। योगिनी सम्पास किया-'तुमने निरपराध हमारा स्थान नष्ट काशी जाकर परमधार्मिक दिवोदासको स्वधर्मयुत किया है । इसलिये तुम्हारी यह पुरा निश्चय भी कर न सकीं। सुतरा उनके काशी नानेका उद्देश्य प्रस- शून्य हो जावेगी।' निकुम्भ उस प्रकार अभिशाप है फल हुवा। वह मणिकर्णिकाको सम्मुख रख काशीमें महादेवके निकट पहुंच गये। उधर निकुम्भके अभि रहने लगों में कुछ दिन बीतने पर महादेवने देखा शायसे वाराणसी जनशून्य हुयौं । दिवोदामने गोमती कि योगिनी मोटीन.थीं। फिर उन्होंने अत्यन्त उत्क- तौर राजधानी बनायी थी। फिर महादेव उसी शून्य ण्ठित हो सूर्यको भेजा । सूर्य काशी जाकर धार्मिक वाराणसी नगरी में प्रावास निर्माण कर देवौके साथ परम सुखसे विहार करने लगे। किन्तु वह स्थान देवी- की प्रीतिकर न हुवा। अवशेषको उन्होंने महादेवसे • ब्रह्माण्डपुराप उपोदवातपाद, महादेवके वारापनो भागमनका कहा 'इस (जनशून्य) पुरोमें हम रह नहीं सकती। विषय ठीक उसी प्रकार विखा, किन्तु पुराणान्तरमें कुछ नतमेद स्पषित महादेवने उत्तर दिया-'इस स्थानको हम नहीं होता एकाध शब्दमें विखन विवरण देखना चाहिये। छोड़ेंगे । यह हमारा अविमुक्तएह है। हम कहीं कारोवाइमें श्मे २८ अध्यायके मध्य दिवोदारिपुरको अनेक कथा दिखी। दूसरी जगह नहीं जायेंगे। तुम्हारो इच्छा हो, चलो + बदम्यान पाशकन्न चौसठ योगिनोशा घाट कशाता है। Vol. 159 नय याक } IV.