काशी ६४३ एकसमय क्षत्तिवासेश्वर का अति वृहत्मासाद था। कहाता है । हिन्दूविदेषी पौरंगजेवक राजत्वकास "करियावासषा महापासादनिर्मितिः । मुसलमानों ने कत्तिवासेश्वर मन्दिर बस कर उसके या इमापि नरी ट्रात कत्तिवासः पद लमत् । साजसामानसे १६५८ ई० को उक्त मजिद बनायी थी। सधामपि लियाम मौलिख तिवाससः " पालमगीरी समजिदके निकट ही रत्नेश्वरका (काभीखएड, 14-10) पवित्र मन्दिर है। काशीखण्ड में कहा है-"कालभैरव- कत्तिवासेश्वरका वृहत् प्रासाद नयनगोचर होता के उत्तरमागर्म गिरिराज हिमालय पार्वतीके लिये है।मानव दूरसे वह प्रासाद निरीक्षण करते ही कृत्ति- जो समुदाय रत्न लाये थे, वह अकन्न पुखोपार्जित दासत्व पा जाता है। वह मन्दिर सपिचा श्रेष्ठ है। रखराशि लेखर में रख वह अपने सह चले गये। कत्तिवासश्वरके उसी प्रासादका चितमान भी नहीं काशीम जिसने लिक हैं उन सकलके मध्य वह लिङ्ग महा। पाजकल उसका कियदंश बालमगीरी मसजिद रत्नमूत है। इससे उसको रत्नेश्वर कहते हैं। देवी मणि कॉर्णिका-पाट। पार्वतीक प्रादेशपर उनके विवपरित्या राशिकत काल मृत्तिकास मणिरन निकले थे। सुवर्णसे गण समूहने रत्नेश्वर प्रासाद निर्माण किया। कागोको मणिकर्णिका भो सामान्य तीर्थ नहीं। जो व्यक्ति रत्नेश्वरको नमस्कार कर देशान्तर और शिवपुराणको जनसंहिता निखा है- कासग्रासमें पड़ता, वह शतकोटि कल्पमें भी स्वगंधु त "ततय विना दृश पड़ी किमतदासम् । इत्याययं वा दृष्टा शिरस कम्पन' कसम्। हो नहीं सकता। उसो लिङ्गको पूर्वदिक पार्वतीने ततय पतिवः कर्यान्भणय पुरतो ममीः।। दाक्षायोश्वर नामक लिन प्रतिष्ठा किया था।" यवासी पतिवश्व सवासोमणिकर्णिका।" (४६) "-१७) (कामोखमप.) तदनन्तर विष्णु ने उसे देख कर मनमें कहा-हो प्रायः ८५ वर्ष पूर्व उस मन्दिरको भिच बनन वह अतिशय बड़त व्यापार था। छत भावयं देख
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