पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६४१

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कायो उन्होंने शिर:य म्यन किया था। उसमें उनके कसे काशीमाहात्मामें लिखा है- कापिन्च वा साखप्रयोग मणिभूषण प्रभुके आगे गिर पड़ा। मणि पतित होने अथवा बहुतर व्रतद्वारा जो गति नहीं मिनसो, मोक्ष- के स्थान पर ही मणिकर्णिका है। भूमि मणिकर्णिका मानवगणको अनायास वही गति "मास्ति गङ्गासनं तीर्थ वाराणास्यां विशेषतः । प्रदान करती है। ब्रह्मचारी भी अन्तिम कान्न मुक्तिके- तवापि मणिकर्णाज्य वीर्थ' विश्वेश्वरप्रियम् ॥" (सौरपुराण ।।८) लिये मणिकणि काका प्राश्रय ग्रहण करते हैं। वास्त- गङ्गासम तौथै नहीं । विशेषतः वाराणसी में विश्व - विक सहन सहन यात्री मणिकर्णिकाका वारि स्पर्श खरप्रिय मणिकणि काके तुल्य तीर्थ दूसरे स्थान पर करने पाते हैं। देख नहीं पड़ता। मणिकणि काके घाट पर विष्णुको 'चरणपादुका' "सारिचिन्तामणिग्व यस्मात् ततारकं सब्जनकर्णिकायाम । हैं । प्रवाद है-यहां भगशन् विष्णु ने महादेवका शिवोऽभिधत्ते सहसाऽन्तकाले तद्गीयतेऽमौ मणिकर्णिकैति । पाराधन किया था। एक विस्त त मर्मर पत्थर पर पद- मुलिलामीमहाप'ठमणिस्तचरसानयोः । तनको भांति दो चिङ्ग है । वह प्राय डेढ़ इथि विस्तृत कर्षियं तसः पायर्या नना मणिकर्णिकाम् ॥" हैं। कार्तिक मास नाना स्थानोंसे यात्री उस चरण- ( काशीखपड 10-..) संसारी जीवोंके चिन्तामणि विश्वनाथ अन्तिम. पादुकाकी पूजा करने जाते हैं । वरणासङ्गमके निकट काल साधुवोंके कर्ण में तारकव्रह्म उपदेश किया करते भी उसी प्रकार पादुका चिन्ह हैं। मणिकर्णिका हैं। इससे उसका नाम मणिकर्णिका है। पथवा वह घाट पर अनतिदूर सिहविनायकका प्राचीन मन्दिर स्थान मुक्ति लक्ष्मीके महापीठका मणिस्वरूप और है। उस मन्दिग्में सिविनायक व्यतीत सिह और उनके चरणकमलका कणि का स्वरूप है। इससे मानव बुद्धि देवीको भी मूर्ति है। सिहविनायकके निकट अमेठीके रामा हारा प्रति- उसे 'मणिकर्णिका' कहते हैं। ष्ठित एक सुन्दर देवालय है। मणिकर्णिकाके समीप: "वदीयस्वास्थ तपसी महोपचयदर्शनात् । संधिया और नागपुर के राजाका बंधाया मनोहर घाट बन्मयान्दोलितो मौलिरपियवणभूषणः । वर्तमान है। वदान्दोलनतः कर्णान पपात मपिकणिका। मणिकर्णकिाके विसकुल सामने तारकेश्वरका मणिभिः खचिता रम्या सतोऽस्तु मणिकर्णिका । मन्दिर है। सौरपुराणमें लिखा है- चक्रपुष्करिणी तीर्थ पुराख्यातमिदं ग्रभम् । "अन्तिमकाल सारकेश्वर काशवासियों को तारक वया चक्रे खननाच्छवाचक्रगदाधर । प्रद्यका ज्ञान प्रदान करते है।" (c) गङ्गाके पश्चिम मम कात् पपातेयं यदाच मणिकर्णिका । घाटपर दिवोदामेश्वरका मन्दिर है। काशीखण्डके वदा प्रमति लोकऽन ख्यातास्तु मणिकर्णिका।" मतसे काशीपति रिपुष्त्रय दिवोदासने वहां एक शिवा- (काशीखण्ड २६/११-१५) लय बनाया. और उसमें दिवोदासेश्वर नाम शिवलिङ्ग महादेवन कहा है-'हे विष्णो। तुम्हारी महा प्रतिष्ठा कराया था । वह स्थान 'भूपाल श्री तीर्थ नामसे तपस्या देख हमने विस्मयसे मस्तक हिलाया था । उसमें विख्यात है (५८२११-१२) वर्तमान मन्दिर बहुत अधिक हमारे कर्णसे विचित्र मणिसमूहखचित मणिकर्णिका दिनका प्राचीन समझ नहीं पड़ता । मन्दिरमें दिवो- नामक कण भूषण यहां गिर पड़ा इसीसे इस स्थानका टासेश्वर तिन व्यतीत 'विंशवाहुश' नानी एक नाम मणिकणि का है । तुम्हारे चक्रहाग खनन कर देवमूर्ति है, उसके २० हाथ हैं। मन्दिरको प्रदक्षि- नेसे यह पवित्र तीर्थं पहले चक्रपुष्करिणी कहाता था णार्क मध्य धर्मकूप नामक एक पवित्र ली है। किसी पीछे हमारी मणिकर्णिका गिरनसे यह मणिकर्णिका किसी पुगन्दिके मतानुसार पहले वह वौद्धों का तीर्थ नामर ख्यात हुवा। था, पौछ हिन्दुवाका बन गया । काशीखण्ड के मतमें.