e शराब। - - कपिवक्त्र-कपिस्थल १०।१ श्यामवर्ण, मटमैला रंग। यह कण एवं दित्वात् वलोपः। गनपिप्पली, गंनपीपर । गजपिप्पली देखो। पीत उभय वर्ण मिलनेसे बनता है। २ सिल्हक नाम कपिवक्त्र (सं० पु.) कपर्वानरस्य ववमिव वक्वं गन्धद्रव्य, लोबान। ३ द्राक्षामद्य, अङ्गरी शराध । यस्य, बहुव्री०। १ देवर्षि नारद । महाभारतमें "यामा न पश्यत् कपिश पिपासतः।" (माघ) नारदके वानरमुख सम्बन्धपर इस प्रकार लिखा, ४ शिव। ५ जनपदविशेष, एक बसती। कापियो देखो। किसी समय देवर्षि नारद और उनके भागिनेय पर्वत ( (त्रि.) ६ कपिशवर्णयुश्चा, मटमैला। ऋषिने इस लोकसें आ मनुष्यों के साथ एकात्र रहने- कपिशा ( स० स्त्री० ) कपिश-टाम् । १ सुरा, को विचार किया। फिर दोनों दोनोंको शुभाशम २ माधवीलता, चमेली। ३ नदीविशेष यावतीय मनोभाव बता देनेको प्रतिज्ञाकर सृजन एक दरया। रघुराजा इसी नदीको पारकर उत्कच राजाके राज्यमें बस गये। राजाने उभय ऋषिकी पहुंचे थे। (रघुवंश) इसका वर्तमान नाम कमाई परिचर्याके लिये खोय कन्याको नियुक्त किया था। है। यह मेदिनीपुरके दक्षिणांथसे प्रवाहित हो वनोप- कुछ दिन पीछे नारद उस कन्याके प्रति अत्यन्त बासक्ता सागरमें जा गिरी है। ४ पिशाचोंको माता। यह हुये, किन्तु लज्जावशतः यह मनोभाव सागिनेय पर्वत- काश्यपको एक स्त्री रहीं। से बता न सके। पर्वतको प्राकार इङ्गित द्वारा उनका कपिशाजन (सं० पु०) कपिशं बननं कपिथयुक्त मनोभाव अवगत हुवा था। उन्होंने अतिशय कुछ वा अन्जनं यत्र, बहुव्रो० । शिव । हो नारदको प्रतिज्ञाभन करनेपर अभिशाप दिया,- कपिशापुत्र (स• पु० ) कपिशायाः मदोन्मत्तायाः 'यह राजकन्या तुम्हारी भार्या बनेगी। फिर तुम पिशायाः पुत्रः, ६-तत्। पिशाच, शैतान् । वानरका मुख धारण कर इस मत्य भूमिपर घूमते कपिशायन (सं० पु.) १ देश्ता। २ मद्यविशेष फिरोगे। (मारत, शान्ति ३० ५०) (क्लो०) २ वानरका किसी किस्मको शराब। यह कापिश देशम परसे मुख, बन्दरका मुंह। वनायी जाती है। कपिवदान्य (सं० पु.) प्रामातकक्ष, पामड़ेका कपिशिका, फपिशोका देखो। पेड़। कपिशोका (सं० स्त्रो०) कपिय स्वार्थे वाहुलकात् कपिल्लिका, कपिवली देखो। ईकन् टाप च मद्यविशेष, किसी किसको शराब । कपिवली (सं० स्त्रो०) पिरिव कपिलोम एव वनी, | कपिशोष (सं• लो०) कपौनां प्रियं शीर्ष प्राका- मध्यपदलो। गनपिप्पली, गजपीपर। २ कपित्य-रादीनां अग्रप्रदेगः, मध्यपदलो । प्राचोरादिका वृक्ष, कैथेका पेड़। पग्रभाग, दीवारका सिरा। कपिवास (सं० पु.) पारिशाश्वत्यक्ष, किसी किसके कपिशीर्षक (सं• लो०) कपौनां शीर्ष वर्णवत् कायति पीपलका पेड़। प्रकाशते, कपिशोष क क । १ हिङ्गल, शिङ्गरफ, कपिविरोचन (सं० लो०) मरिच, मिर्च । २ प्राचौरादिका अग्रभाग, दोवारका कपिविरोधि, कपिविरोचम देखो। कपिवौज (सं० लो०) शकशिम्बोवीज, केवांचका कपिशोर्णी (सं० स्त्री०) वादिनविशेष, किसी किसका तुखमा कपिलक्ष (सं० पु०) पारिशाश्वस्थ, किसौ किस्म का | कपिष्ठल (सं० पु.) ऋषिविशेष। ,कापिठल देखो। कपिस्कन्ध (स'. पु.) कपीनां स्कन्ध इव स्कन्धो यस्य, कपिथ (सं० पु०) कपिः वर्णविशेषः कपिल नाम वा मध्यपदलो। दानवविशेष। (हरिवंश) पस्त्यस्य, कपि-म। शोमादिपामादिपिच्छादिभ्यः मनेवचः । पा । कपिस्सल (सं• को०) कपीना स्वसं पावासम्, इ-तद। ईगुर । सिरा। बाजा। पीपल।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/७
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