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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/७०८

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काश्यप ७११ काश्यपायन-काष्ठकुट्ट काषायवासिक (सं० पु. ) काषाये काषायरलवस्त्रे (क्लो.)८ मांस, गोश्त । (त्रि.) वालोऽस्यास्ति, काषाय-वास-ठन् । कीटविशेष, एक प्रजापतिवंश वा गोत्रसम्बन्धीय । कौड़ा। वद सौम्य और सविष होता है। उसके काटने काम्यायन ! सं० पु०) कश्यपस्थ गोवापत्यम्, कश्यप- से हेमजन्य रोग हो जाता है। फक् । मड़ादिम्य-फक् । पाHI काश्यपके गोत्रायत्व शपायो (सं० पु.) कषायण प्रोतमनीत, कषाय गौण- वा वंशधर। काश्यपि (सं० पु.).श्वपस्य अपत्यम, कश्यप बाहुल- आदित्वात् यिनि । १ कयाय ऋविकथित शाखाध्यागे। कात् च । १ अरुण, सूर्यके सारयो ! २ गरुड़ । (स्त्री०) २ मविष मक्षिका विशेष. कोई जहरीन्नी मक्खी। काष्ठ (सं० ली.) काशते दीप्यते ऽनेन, काश-कथन् । काश्य पिन् (सं० पु.) काश्यपेम प्रोक्त अधीयते इति, काश्यप-णिनि । शौनकादिभ्य स्कन्दसि । पा ४ | ३१.4। काश्यप. हनि कृषिमौरमिकाशिम्यः कवन् । उपास दारु, सकड़ी, प्रयीत शाखाविशेषके अध्ययनकर्ता। काठ। काठका नक्षण इस प्रकार कहा गया है- काश्यपी (संस्त्री०) कश्यपस्य श्यम, कश्यप-अगा. "ससारमतिपक' यत् टिमध्ये समयति । तरकाष्ठ काडमिन्याहुः पतिरादिसमुद्भवम् ।" डोए। तम्य दम् । ४ । ३ । १२० । १ पृथिवी, जमीन् । २ खदिर प्रमृति वृक्ष समूहका जो खुण्ड सारयुक्त, प्रमा, रैयत । काश्यपीवालाक्यामाठीपुत्र ( स० पु० ) वेदगारखा अत्यन्त शुष्क और सुष्टि हारा ग्रहण करनेके उपयुक्छ होता, वही काष्ठ कहाला है। प्रवतक एक ऋषि। काश्यपेय (सं० पु.) काश्यपी अदितिः तव भवा, काठक (सं० ली.) का सत् काति, काष्ठ के-क काश्यपी-टक् । १ मर्य, सूरज । यहा का विद्यतेऽस्य, काठछ कुकु-लस्य लुक् । 'नवाकुसुमसाग' कार्ययं महाद्युतिम् । १ अगुरु । २ काठागुरु। ३ कृष्णागुरु । (नि.) प्यास्तारि सर्वपापन्न प्रपतोऽस्मि दिवाकरम" (प्राम) ४ काष्ठयुका २ देवमाव। ३ पसुरमान । गरुड़। काठकदली (सं. स्त्रो) काठवत् काष्ठना कदनी, काश्यायन (म0पु0) शास्त्रस्य बाधिराजस्य गोता. मध्यपदलो । बन्ध कदनौविशेष, कठकोना। उसका पत्यम्, काश्य-फन् । वाशिराजवंशीय । संस्कृत पर्याय-सुकाष्ठा, वनदरी, क्राष्ठिका, शिला काश्वगे (सं० स्त्री० ) काय पनिप डीप रय । बनो-र-च । रम्भा, दारुदत्री, फलाव्या, दननोचा और अश्म- 41181110 इस गाम्भाग वृक्ष, गम्भारोका छोटा पेड़ । कदनी है । गनिघण्ट के मतानुसार वह रुचिकारक, काष( सं: पु०) कश्यते ऽनेन, कष करणे घन् । १ कष्टिः रतपित्तनाशक, शीतल, गुरु, मन्दाग्नि कारक, दुष्पच्च प्रस्तर, कसौटी ३ ऋषिविशेष । और मधुरस होती है । उसके खानसे हृष्णा, दाइ, काषाय (वि.) काषायेण रक्तम्, कषाय-अगए । मूयक्वच्छ, रक्तपित्त, विस्फोटक और अस्थिरोग टूर .कषायद्रव्य द्वारा रचित, सुख लान्न । होला । (सावनिघण्ट) 'भाषायपरिधानस्तु कधं गमो भविष्यति । ( गमाथा २।१२।१८) | काउकोट (सं० पु०) साठे जात: कोटा काठच्छेदको कावायकन्य (सं० पु.) काषाया कन्या यस्य, बहुबी०.। कोटो वा, मध्यपदन्हो । काटको काटनेत्राला झाड़ा, कषाय द्रश्य द्वारा रक्तवर्ग कन्याधारो भिक्षुकविशेष । धुप, घुन । काष यय (पु.) वाषस्य ऋः गोलापत्यम, काय काष्ठकीय (सं० वि०) काठस्य इदम, क्रा6-छ। गुरु फक्। कापऋषिगोत्रीय कोई ऋषि ३६ वाजमा नेय शाखाभुत थे। काष्ठमन्वन्धोय। काषायवसन (सं० त्रि.) कापायं कषायरल' में साठ टक, काठमादेखो। यस्य, बहुव्री० । काषायवस्त्र वशिष्ट, गेरुहे कपड़े पहने काठकु (सं० पु०) झाडं युति, हाड छुट्ट-पण । शत- '. च्छद, कठफोड़वा । उसका मांस लंधु, वातहर, पम्नि-