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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/७२३

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०२६ किङ्किणीको-किचन किहिणीको (सं० त्रि.) किनियोति कला कायति । झाड़ो कटस या । ६ पुप्यविशेष, एक फूल । उसका शब्दायत, किशिपी-का-का, किशिणीकः क्षुद्रघण्टि का संस्कृत पर्याय-हेमगौर, पौतक, पोतभद्रक, विप्रलोभी, स अस्यास्ति, किङ्किणीक-इनि । क्षुद्रघण्टिकायुक्त, पोतालान पौर षट्पदानन्द है। राजनिघण्ट के मतमें करधनीवाला। किदिरात कषाय एवं तिरस, उष्णवीय, पग्निदीपक किहिणीतेल (बहत् )-वैद्यकोक्त किसी किस्सिका और कफ, वायु, कण्ड, शोथ, रक्त तथा त्वक्दोषनाशक तेश। उक्त तेलके व्यवहारसे कानमें सन सन शब्द है। फिर भावप्रकाशमें उसे पिपासा, दाह, शोष, वमि का होना, कान बहना, वधिरता, शिरोरोग, चक्षुरोग, और कृमिनाशक भी कहा है। कण्ठरोध और मन्यास्तम्भादि मिट जाता है। प्रस्तु न किङ्किरात ( सं० पु. ) शिशिराय रक्तवाय पति करनेका नियम यह है-वाथके लिये पादित्यभक्ता पर्याप्नोति, किङ्किर-अल्पच् । वर्वर वृक्ष, बवून का की २ सेर पार जस १६ सेर एकत्र पका ४ सेर रहने पेड। से उतार लेना चाहिये । झटि, कालधुस्त र भोर | किविगै (सं० पु० ) किङ्किरं रक्तवर्ण फलं प्रस्वस्मिन्, निर्गुण्डी प्रत्येक २ सेर परिमाण और समनियममें मिहिर-इनि । विकासक्ष, बैंची। फिर तीन प्रकारका क्वाथ बनाते हैं। कल्काथ ४ सेर किशिल (सं० अध्या) किं च किस्त च, इन्दः । १ क्रोध. सर्षेपतैल, यष्टिमधु, पिप्पलो, मुस्ता, गन्धक, कुष्ठ, से ।२ अश्रद्धासे। दुरालभा, कर्कटशृङ्गी, आदित्यभक्तायोज, धुस्त रवीज, | किनिन्चास (सं० पु० ) अशोकचक्ष । राना, मधुरिका, झटिकामूल, ईशलाङ्गतका मूल, किण (सं० त्रि.) किं कियत्परिमाणं वमत्र, विषमाधुक, मनिष्ठा और सहौजनकी छाल प्रत्येक वहुवी। कितने समयजात, कितने क्षपमें सम्पन्न, ४ तोला डाल कर पकाना चाहिये। कितनी देर में बना हुवा। किपिनि (सं० पु.) किहिनौ देखी। किङ्गोत्र (सं० वि०) किं किनामधेयं गोत्रमस्य, बहुव्री। किदिनी (सं० स्त्री०) १ विकसमवृक्ष, बैंची । २ पाम्न कोन गोत्रीय, किस वंशजात, किस गोत्र या वंशवाचा । द्राचा, खट्टा अंगूर। किचकिच (हिं० स्त्री० ) १ निरर्थक वादविवाद, झूठा किरि (स' क्ली०) किं कुत्सितं मदवारि किरति विधि झगड़ा ।२ वाक युद्ध, तकरार । पति, किम्-व-क । १ इस्तिकुम्भ, हाथोका मत्या.। (पु०) जिचकिचाना (हिं. क्रि० ) १ क्रोध के कारण दन्तघर्षण २ बृहत् कृष्णमक्षिका, भौरा।३ कोकिल्ल, कोयल । करना, दांत पोसना । २ पूर्ण बलप्रयोग करना, पूरी ४ घोटक, घोड़ा । ५ कामदेव । ६ रक्तवर्ण, लालरंग। ताकत लगाना । ३ क्रुध होना, गुस्सा पाना। - (वि.) रक्तवर्णविशिष्ट, मुर्ख लाल । किचकिचाहट (हिं. स्त्री०) क्रोध, गुस्सा, दांत पिसाई । किदिरा (सं• स्त्री०) कि कुत्सितं यथा तथा किरति गरी किचकिची (हिं० स्त्रो०) क्रोध, गुस्मा, किचकिचाहट । रात् निःसरति, किम् कृ-क-टाप् । १ रता, खून, लह। किचपिच (हिं. वि.) १ क्रमरहित, वैमिलसिला। २ विकान्तक्ष, बैंचीका पेड़। २ अस्पष्ट, जो साफ न हो। किविराट ( सं० पु० ) १ वळूरक वृक्ष, बबूल का पेड़ | किचड़ाना (हिं. क्रि०) भांख में कीचड़ पाना, प्रांत किडिराट शीत, भदक, ग्राहक और कफ, कुष्ठ, कृमि एवं विषनाशक होता है। (द्यकमिघण्ट) किचरपिचर, किचकिचर, किचपिच देखी । किरात (सं० पु०) किदिरं रतवर्णवं असति पुष्प किच (सं• अव्य. ) किम् च च च इयोन्दः । १ बार- काले विस्तारयति, किदिर-पत-प्रण। १ पथोक वृक्ष । म्भसे, शुरूमें। २ समुच्चय पर, जाखी में । ३ साकल्यमें । २ कन्दवं । ३ शुकपची, तोता। ४ कोकिल, कोयल। ४ सम्भवतः, गालिबन् । ५ भेदपूर्वक, बंटवारसे। ३ . सकाएटकपीतपुष्पारण्य झण्टौक्षुप, एक लाल किचन ( सं० पु. ) किम-चन्-अच् । १ इस्तिकणे उठना।