पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/७२५

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७२८ किटिभ-कितक - किटिभ (सं० पु०) किटिरिव भाति, किटि-मा-क । २ ताम्रकलश, सविका घड़ा। (को०) ३ साम, १ केशकोट, जूं। २ कुष्ठरोगभेद, किसी किस्म का कोढ़। तांबा। ४ मंडूर। (क्लो.) ३ तत्थक, तूतिया। किहिम (सं• लौ० ) ट्रवद्रव्यविशेष, एक रकीक चीज । किटिभकुष्ठ (सं० पु०) कुष्ठरोगभेद, किसी किम्मका किड़कना (हिं० कि. ) चल देना, खिसकना । कोढ़ । उसमें चर्म शुष्क अणको भांति कृष्णवर्ण और किडकिड़ाना (हिं. क्रि०) किटकिटाना, दांत कठोर पड़ जाता है। पीसना। किटिम (सं. क्लो० ) १ क्षुद्रकुष्ठभेद, किसी किसका किण (म० पु० ) कण गतौ अच् पृषोदरादित्वात् प्रत इलका कोढ़ । अत्यन्त कण्डू विशिष्ट एवं नावयुक्त इत्वम् । १ मांसग्रन्थि, गोश्तकी गांठ । २ घुण, घुन । स्निग्ध कृष्णवर्ण गोलाकार धनसन्निविष्ट पिड़का “यस्योद्घर्षणलोटकरपि सदा पृष्ठे न लात: किए।" (मृच्छकटिक नाटक) विशेषको किटिभकुष्ठ कहते हैं। कुष्ठ देखो। कालिकके साथ क्वष्णसिन्धुकको शिखा पीस कर लगानेसे उता ३ इक्षु, जख । ४ करोर, करोल । ५ कोशाङ्ग। ६ मधितो- रोग अच्छा हो जाता है। परिस्थ फेनाभ वस्त, मथी हुई चीज पर झाग जैसी किटिमूलक (सं० पु. ) वाराहीकन्द, शूकरकन्द । चीज़ । ७ योनिकन्दरोग, एक बीमारी। घर्षणज किटिताभ, किटिमूलक देखो। चिङ्ग, रगड़का निशान् । शुष्क व्रणचिन्ह, सूखे जखम. का निशान। किटी, किटि देखो। किट (सं० लो०) केटति वोहादि धात्ववयवात् निर्गकृति किणवान् (स० पु०) किणोऽस्यास्ति, किण-मतुप मस्यः वः । किशविशिष्ट, सख्त, कड़ा। किट्ट-क्त पागमशास्त्रस्य अनित्यत्वात् नेट् । १ लौह पादि धातुका मैल, लोहे आदिका मोरचा । | किणालात (सं० पु० ) इन्द्रका नामान्तर। . का उत्तम, अशीति वर्षका मध्यम पौर षष्टि वर्षका किणि (स• स्त्री० ) किणाय तब्रिहत्तये प्रभवति, अधम होता है। उससे होन किट विषतुल्य है। उस- किण बाहुलकात् इन् । अपामार्ग, लटजीरा । अपामार्ग देखी। में लौहका ही गुण रहता है। ( भावप्रकाश ) किटका किणिहि, किणिही देखो। शोधन इस प्रकार है-किटको विभौतक काष्ठके | कपिडी (स. स्त्रो.) किणः अस्त्यस्य, किण-इनि: अग्निसे जला जब अग्निवर्ण हो जाये, तव गोमूत्र में फिणिनो व्रणान् हन्ति, किणिन् हन्-ड-डीए । १ प्रपा- बुझा लेना चाहिये । इसी प्रकार उसे ७ वार शोधन मार्ग, लटजीग । २ कृष्णकटभीवक्ष, एक पेड़ । करते हैं। फिर किट्टको चूर्ण कर त्रिफलाके हिगुण क्वाथमें पकाते हैं। उसे मधुके साथ सेवन करने पर किख (सं० पु०-क्लो०) कण-क्वन् बहुलवचनात् इत्वम् । रोग प्रारोग्य होता है। किट्ट मधुर, कट, उष्ण, अनु विलटिकयोन्यादि । उ । । १५१११ सुरावीन, शराबका और कमि, वात, शूल, मेह, गुल्म, एवं शोफन है। नशा बढ़ानेवाली एक चीज ।२ पाप, गुनाह । (राजनिघण्ट) २ पुरीष, मैला । ३ कर्णमल, खूट । किण्वक, किण्व देखो । ४ शक्र, वीर्य । ५ तेलमल, काट, कोट । किखमूलक (सं० पु०) वकुलाच, मौलसिरीका पेड़। किटक, कि देखो। किखो (सं० पु०) १ प्रख, घोड़ा । (वि०) २ पापयुक्ता किट्टवर्जित ( ० क्लो०) किन मलेन वर्जितम्, ३-तत् । १ शुक्रधातु । शक्र देखो । (वि.) २मलशून्य, निर्मल, कित (सं. पु. ) सुनिविशेष । कित (हिं. क्रि० वि०)१ कुत्र, कहाँ । ३ किस पोर, किधर । किटाल (सं० पु.) किन मलेन पलसि पर्याप्नोति, कितक (हिं. क्रि० वि.) कियत्, कितना । किट-अल-अम् । १ नौहगूध, लोहका ' मोरचा । ३ खेतगोकर्णी। पाण्ड, गुनाहगार। साफ, जो मला नहो।