७३० किन्दम-किन्नामधेय से छूट परम गति पाता है । ( भारत, वन० ८३ प० ) किन्नर (हिं० पु.) १ वादविवाद, झगड़ा । २ नग्नुरा। किन्दम (सं० पु०) ऋषिविशेष । किन्दम ऋषि मृग ३बहाना। रूप धारणकर मृगरूपधारिणी स्त्रीके माथ किसी किनरकण्ठरस-वैद्यकोक्त औषधविशेष, एक दवा । काल विहार करते थे। उसी समय महाराज पाण्डु ने पारद, गन्धक, प्रव, स्वर्णमाक्षिक एवं लौह प्रत्येक उन्हें मार डाला । उसीसे किन्दमने पाण्ड को अभि- २ तोला, वैक्रान्त ४ माषा, स्वर्ण २ माषा तथा रोप्य शाप दिया था-'तुम भी सङ्गमकालमें मरोगे।' १ तोला सवको वासक, ब्राह्मणयष्टिका, वृहती, कण्ट. (भारत, धादि०११८५०)। कारी, प्राट्रक और बायोके रमसे मिला पृथक् पृथक किन्दर्भ (सं० पु०) कोई ऋषि । भावना देना चाचिये। फिर २ रत्ती को बराबर वटिका किन्दान ( स० लो०) किश्चिदपि दान आवश्यक यत्र, बना छायामें सुखा ले ने उक्त प्रौषध प्रस्तुत होता है। बहुव्री० । सरकतीर्थस्थ तीर्थविशेष । किन्दान तीर्थमें किम्मरकण्ठरस थोड़े दिन नियमित व्यवहार करनेसे सान करने से अपरिमित दानका फन्न मिलता है । किन्नरको मांति कण्ठस्वर बनता और स्वरभट्ट, लास, ( भारत, वन, ३५०)। किन्दास (० पु०) कः कुत्सितो दासः, कर्मधा० । किन्नरवर्ष ( सं • पु . ) वर्षविशेष, एक मुल्क । किन्नर खास, एवं कफज तथा वातले मज रोग मिटता है। निन्दित दास, खराब नौकर । वर्ष हिमालय पर्वतके उत्तरभागमें अवस्थित है। किन्दी ( स० पु०) घोटक, घोड़ा । किन्नरी (सं० स्त्री०) किवर-डोष् । किन्नर जातीय स्त्री । किन्दुविल्व ( स० पु० को०) गढ़देशीय एक ग्राम । "शोभयन्ति च तम मममाणा परस्त्रियः। किन्दुविल्व प्रजयनदीके तौर अवस्थित है । उस यथा कैलासपत्राणि शतशः किन्नरोगणाः॥" केन्दुविल्व, केन्दुविल और केन्दुविल भी कहते हैं । (रामाराण, ५ | १२|१८) प्रसिद्ध वैष्णव कवि जयदेव गोस्वामीने उक्त ग्राममें किन्नरीवीणा ( मं० स्त्री.) किसी प्रकारका वीणायन्त्र । जन्मग्रहण किया था। वहां प्रति वर्ष माघ मासको पूर्वकालको उक्त यन्त्र नारियल के खोपडेसे जय देवका मेला' लगता है। आजकल इसे केन्टुली था। आज अन्न उसे पक्षिविशेषकै अण्ड वा रजतादि कहते हैं। जयदेव देखी। किन्दे क्त (सं० त्रि०) का. देवताऽस्य, किम्-देवता. धातु द्वारा भी प्रस्त त करते हैं । वह कच्छपीवीणाको अपेक्षा श्राकारमें क्षुद्र होतो है। किवरी-जातीय वीणा अच् । १ किस देवताका उपासक, किस देवताको पूजा हो पहले यइदियोंमें किन्नर' और एनानिमि करनेवाला । २ किस देवतासम्बन्धीय । 'जम्बुका' नामसे विख्यात थी । वह दो प्रकारको किन्देव त्य (सं०बी.) किन्देवतस्य भावः, किन्दे। होती है लध्वी और वृहती। वृहतीम तीन तुम्बी वत-व्यञ् । किन्देवतका धर्म । लगती हैं। किन्धी (सं० पु०) किं कुत्सिता धोः बुद्धिरस्त्यस्य, किम्-धी इनि । अश्व, घोड़ा। किन्नरेश (सं० पु०) किनगणं ईशो. गजा। किन्नर- किन्नर ( सं० पु. ) किं कुत्सितो नरः, कर्मधा० । राज कुवेर । काशीखण्ड में लिखा है-कुवेरने महा. १ देवयोनिविशेष, एक प्रकारके देव । किन्नरका मुख तपस्याकै वल महादेवके निकट गुह्यक, यक्ष, किन्नर अश्व की भांति रहता, किन्तु अन्यान्य समस्त अवयव प्रभृतिके आधिपत्य और धनेश्वरत्वका वर पाया था। (काशौखग्य, १२.) मनुष्यतुल्य देख पड़ता है। उसका संस्कृत पर्याय- किम्युरुष, तुरङ्गावदन, मयू, अश्वमुख, गौतमोदी और / किन्नरेश्वर ( सं० पु० ) किन्नराणां ईखरः, ६-तत् । कुवेर । कविरेश देखो। हरिणनतक है । किन्नर अतिशय सङ्गीतपटु होता है । तुम्बुरु प्रभृति स्वर्गगायक भी उक्त जातिके ही हैं। किन्नामधेय (सं० त्रि.) कि नामधयमस्य, बहुव्री० । २ वर्षविशेष । ३ कोई बौद्ध-उपासक । किन्नामविशिष्ट, किस नामवाला। बनता © ।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/७२७
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