पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/६७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६६१ वर्षाधिप-वर्षाम्बु पुकारो नागरगण पर गाधर्म, लेप, गणित तथा शनिफे वपाधिपति होनेसे दुत्त दायुभोंके उपद्य अस्त्रयिदोंका यद्धि होती है। राना लोग परस्परको प्राति । स तथा सप्रामसे सारा राष्ट व्याकुल हो उठता है। कामनासे अद्भुत दर्शन तथा तुष्टिकर द्रव्य एक दुसरेको। अनेकों नर तथा पशुओं के प्राण विनष्ट होते हैं, मनुष्य दान करनेक भिलापो होते है । पत्ता तथा त्रयोशात अपने आत्मीय जन के रियोगमै आँसू बहाते ससारमें अविकट पर मत्य रहते है । पिसी पिसीकी है। क्षघा तथा सक्रामक रोगके प्रकोपसे मनुष्य बुद्धि शानदानम अमिनिविष्ट होतो है पय पोइ कोइ व्यस्त हो उठते हैं। मतरीक्षम वायु विक्षित मेघ और आप्पीक्षिकी शास्त्रों परमपद राम करनेकी चेष्टा करता ) देना नहीं जाता। आकाशमें चद्र तथा सूर्यकिरण है। बुध प्रहये वर्ष तथा मासम इस तरहसे पृथ्वी | अ यधिक धूलिपत्तनसे छिप जाती है। जलाशय जल हास्या, दूत, कवि, वालक नपुसक युक्तिय सतुजल हीन हो जाता है । नदियोंको जरधाराये शुष्क पर जाती तथा पर्वतवामियों को तृप्ति पर चारों ओर ओषधियों की है। कहीं कहीं जलक अमावसे फसर नए हो जाती सृप्ति एप प्रचुरता सम्पादा करती है। हैं। कहीं कहों शर्मसत भूभागमें उपज भी होती गृहस्पतिक याणधिपति होनेसे यहोच्चारित विपुल है। इस तरहसे सूर्यके घशधर शनिक पपमेंद्र पञ्च मावागामी वेदध्वनि यशद्रोहियोंक मन विदार्ण करतो | शस्यप्रद जल परमात हैं। है तथा द्विजवर १७ यशामागियो हृदयमें आनदको फलता जो प्रह क्षुद्र, अपटुकिरण नोचगामा या अप घारा बहाता है। पृथ्यो अनि शस्यपती होता है एव | द्वारा नित होत हैं ये शुभ फल तथा पुटिदाता नहीं अन रस्ता अश्य, चतुरङ्ग सेना गोधन सम्पत्तिसे परि! हो साते। अशुभ प्रहफ वर्षाधिपत्ति तथा मामाधिपति पूर्ण हो कर राजाओं द्वारा पालित तथा पद्धित होती है।) होनसे उसोक मासनात फली की वृद्धि होती है। मनुष्य स्वीगोंकी तरह स्पर्धा माघ जायन यापन (वृहत्स ० १६ म.) करते हैं। गगनानत कहयों के पयोदगण तृप्तिकर कल घर्षाधृत ( स० वि०) पर्याशाल सम्म, वर्णमाप्त । द्वारा पृथ्वीका परिपूर्ण करते हैं। मुग्गुरु दम्पतिके ( कात्यायन श्रा० ४६१६) शुभवर्षमें इस तरहसे पृथ्वी पति शस्यपूर्ण तथा समृद्धि पापभजन ( स ० पु० ) मटिको । शालिनी होती है। चपाप्रिय (स.पु.) चाता पपोहा । शुमके यपाधिपति होनेस, धराधर तुल्य जरदपटल ] चर्पाराज (स.को.) मेत्र, बादल । पारिधारा वर्षण करती है। उमसे पृथ्यो परिपृण हो | पामय ( स० पु०) पर्यासु भवताति भू अच् यपामु जाती है, सरोवरो का जल सुन्दर कमलो से माच्छादित मा उत्पत्तिर्यस्य था। १र पुनर्न रा। • पुनर्न।। हो जाता है। पृथ्यो नपे गलकारा स अल्पत हो कर (त्रि०) ३ या उत्पन। उज्यलागी नाराका तरद शोमा पाती है ५५ बहुतो वर्षाभू (म० पु० स्त्रा०) पपासु, भवतीति भूलिए । १ गाली तथा रस उत्पादन करती है। राजाभो की जय मे मेढक । २द्रगोप भ्यारिन TIENT कीडा । धनिसे दिशाए गूज उठती हैं। शनुमो का नाश , ३ कोई मकोड़े। ४ लाल रगको पुनर्नया । (नि.) होता है राना लोग दुपदमा तथा शिपालन करफ ५ वर्ष में उत्पन्न होनेवाला। गर तथा पृथ्योकी रक्षा करत हैं। बस तुम पराभूगार ( स० पु.) पुनन या at मनुष्य कामिनियो क साथ मधुपान करते हैं पर मधुर यायो (सा०) यपाभू ढाप ।१ मेको, मेहको। वाणा पजा कर गान करते हैं। अतिथि सुहद् तथा २ पुनन घा। सपनगणके साथ मिल कर अन्न भोजन परत हैं। वर्षामद (स.पु.) ययासु माद्यति इति मद अन् ।मार, शुभक पपमें इस तरहस मगरकी प्रधानता हो सूचित मार। होती है। । याम्बु (सको०) पृष्टिजर, यथावा पाना।