पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/७११

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वसन्त लताजिने नव पल्ल्य, नये कुसुम तथा नई नई कलियों- वमनादि द्वारा श्लेप्मामा नाश कर देना चाहिये। इस मुसज्जित हो कर पार्श्वस्थ पुष्प वृक्षोंके गले जकड समय लघुपाक, कटु तिक्त कपाय लवण रसयुक्त अन्नादि, लिये, बहाके सुर, सिद्र तथा अन्यान्य तपम्दियों के हरिण, सरगोश आदिका नम मास तथा जी, गेह हृदय परमानन्दसे परिपूर्ण हो गये, किन्तु कठोर संयमी एवं अभ्यस्त होने पर दाग्न ...आदिका पुराना महादेवका आसन तव भी नहीं टला। मद्यादिपान एवं स्नान, पान, आचमन तथा शौचादि (कालिकापुराया ७५०) कार्यमे कुछ उग्ण जलका व्यवहार करना चाहिये । अगर- वसन्तकालके कविवर्णनीय विषय ये है- चन्दनादि अनुलेपन एव पहननेके कपड़े तथा शय्यादि हेमन्तकालको तरह व्यवहार करना उचित है। युवती "सुरभी दाला-कोकिलमाक्त-सुर्यगतितरुदलोद्भिदाः। बीक साथ महवास तथा अरण्यको रमणीयता उपभोग जातीतरपुष्पचयाममंजरीभ्रमरझंकाराः॥" (कविकल्पलता १ स्तवक) करना इस समय अच्छा है। गुरुपाक, स्निग्ध एवं अम्ल तथा मधुर रसयुक्त पदार्थ भोजन तथा दिनका सोना वसन्तकालके गुण-कपाय, मधुर तथा रुक्ष । (राजनि०) प्रभृनि वसन्तकालमें अनिष्टकारक है। हेमन्तकालमें श्लेष्मा उचित होती है, वसन्तकाल। इमक अतिरिक्त सुश्रुत पष्ठ यध्याय एवं वागभटसूव- आने पर वह प्रकोपित हो उठती है। इस समय वायु स्थान तृतीय अध्यायमे भी यसत्ताका विषय उल्लि एक तरहसे प्रगमित हो जाती है। ग्यित है, विस्तार हो जानेके भयमे वे सब बातें यहा नही __ हारीतसहितामे लिग्ना है-वसन्तके समय प्रमुदिन लिखा गई। कोकिलोंकी कूकसे अरण्य, उद्यान गूंज उठने हैं, सुन्दर' वसन्त ( स० पु०) १ अतिसार । २ छः रोगके अन्तर्गत किंशक कुसुम कलिकाए मदनागमनकी सूचना देती है। द्विताय राग। संगातदामोदरम लिखा है, कि राग वन, उपवन तथा पर्वतश्रेणियां फूलोंक सुवाससे सुवा- ' एवं ३६ गांगणी हैं। पूर्वोक्त ६ रागोके मध्य वसन्त एक सित हो उठती है । मत्त मधुपसमुदाय मधुके लोभसे पुप्पों, शाक से लदे हुए विटपों लताओं तथा छोटे छोटे वनस्पतियों पर संगीतदर्पणके मतानुसार पंचवक्त्र शिवके वामदेव चकर लगाया करते है । पशु पक्षी तथा मनुष्य सभी प्राणा नामक द्वितीय वरवसे इस रागको उत्पत्ति हुई थी। पनवाणले वेधे जाते है, स्वास्थ्यकर मलय-समोर प्रवान श्रीराग, वसन्तभैरव. पंचम, मेघरा तथा वहन्नाट. हित होती है, कहनेका तात्पर्य यह है, कि सारा संसार । ये ६ राग पुरुषपद-वाच्य हे। इन सब रागोंके मध्य ही इस समय प्रफुल्लित हो उठता। किन्तु वसन्त ऋतु प्रत्येक रागकी अनुगामिनी छः छः रागिणी हैं। जैसे- कफवर्द्धक होतो है सुतरां इस समय कफ प्रकोपको देशी देवगिरी (देवकिरी), वैराटो, नोडिका, ललिता तथा दवाये रखनेके लिये वमनादि तथा तक्षसेवन अत्यन्त हिन्दोला। इसी तरह दूसरे दूसरे रागों की भी रागिणी प्रयोजनीय है। इनके अतिरिक सर्वदा आनन्द मनाना, है । कल्लिनाथके मतानुसार वसन्तरागको अनु- क्रीडाजनित परिश्रम करना इत्यादि भी कफनिवारणका गामिनी छः रागिणीके नाम पृथका है। जैसे-आन्धुली, प्रधान उपाय है। कफ उपचारमें कट, क्षार तथा अम्ल गमकी, पठमंजरी, गौड़करी, भ्रामकली तथा देवशाखा। पदार्थ सेवन करना उचित है। इस समय व्यायामादि संगीतदामोदरमें बसन्तरागको अनुगामिनोमात्र पांच . शारीरिक परिश्रम करनेसे भी स्वास्थ्यको बडो वृद्धि रागिणीका उल्लेख देखा जाता है। होती है। वसन्तरागका सुरक्रम जैले- चरकसूत्रोंमे लिखा है, कि हेमन्तकालमे श्लेप्मा | सा, रे, ग, म, प, ध, नो, स"। सचित होती है, वसन्तऋतुमें वह सूर्य-करस्पर्शसे दूषित __इस रागके गानेके समय-सम्बन्धमें सगीत- हो कर पाचनशक्ति नष्ट कर देती है। सुतरा इम समय दामोदरमे व्यक्त है, कि श्रीपंचमोले, भारम्भ करके हरिके