पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/९

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रोग रोगपरीक्षा। जिसका पूर्णरूप और रूप सम्पूर्णरूपमे दिखाई देता है। वह रोग बलवान् है । फिर जो अल्प निदान द्वारा रोग होने से पहले अच्छी तरह परीक्षा करनी होती उत्पन्न हो कर अल्पमान पूर्णरूप और रूप प्रकाश करता है। परीक्षा करके पीछे उसकी यथावान चिकित्सा है उसे हीनवल समझना होगा। विधेय है। चिकित्सामा प्रथम उपाय रोग परीक्षा है। ये सभी रोग साधारणतः दोपज और आगन्तुफ दो अच्छी तरह रोगका पता न लगनेसे उसकी चिकित्सा हो नदी सकती । अनिश्चित रोगका का भी औपध भागों में विभक्त हैं। पहले जो सब भेद कह पाये । इन्हीं दो भागोंके अन्तभक्त है। जो सब रोग वाय, पित्त फलप्रद नहीं होता बल्कि उससे अनिष्ट ही होता है। रोगपरीनाके शास्त्रमें नीन उपाय कहे गये हैं, शालो और कफ इन तीन दोपोंमसे पृथक पक पक वा मिलित पदेश, प्रत्यक्ष और अनुमान । पहले रोगीसे कुल हालत दो अथवा तीन दोपसे उत्पन्न होते हैं, उन्हे दोपज कहते है। ए दोपके कुपित होनेसे वह दूसरे दोपको सुन फर शालनिर्दिष्ट लक्षणके साथ उसे मिलामा होगा। पीछे अनुमान द्वारा रोगका आगन्तुक दोष और उमका भी कुपित कर डालता है, इस कारण कोई भी रोग एक दोपज नहीं होता, यही साधारण नियम है । तव जो एक बलावल निश्चय कर लेना होगा। रोगीके निकर सबस्था दो वा तीन दोप रोगका प्रथम उत्पादक होता है, उसके जानने के समय सभी इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष करना भावश्यक अनुसार रोग भी एकदोपन, द्विदोपज वा विदोपज का है। रोगकि वणे, मारुति, परिमाण अधोत् क्षीणता वा पुष्टता और कान्ति तथा मल, मूत्र, नेव आदि सभी देने लाता है। जाने लायक विषय देख कर रोगीके मुख से उसकी कुल सो सघ रोग अभिघात, अभिचार, अभिशाप और पात, आमचार, आमशाप मार हालत तथा अन्तकुजन, सम्धिस्थानमें वा अंगुलिको भूतावेश आदि कारणवशतः हठात् उत्पन्न होते हैं, उनका गिरहके स्फुटन आदि शरीरगत लक्षण मुनना मावश्यक पाम आगन्तुक है। अपने अपने निदानानुसार दोपहपीले गन्ध ठीक है या खराब हो गई है यह परीक्षाफे विशेषके कुपित हुए बिना दोपजरोगकी उत्पत्ति नहीं लिये सर्वशरीरगत गन्ध तथा मल, मूत्र, शुक्र और वान्त. होती। किन्तु भागन्तुक रोगफे आरम्भमें हो वेदना, पदार्थ आदिको गन्ध सूंघ कर तथा सन्ताप और में लूम होती है, पीछे उससे दोप विशेष कुपित होता है, नाड़ीकी गति स्पर्श कर प्रत्यक्ष परना होता है। अग्निवल, यही दोनों प्रकारके रोमि पृथक्ता है। शारीरिक बल, शान और सभोव आदि विषय कार्य प्रकुपित वायु, पित्त और कफ यह लिदाप दोपज रोगा- विशेष द्वारा अनुमान करना होता है । क्षुधा, पिपासा, पति विषयमें विप्रकृष्ट निदान है। विविध हितजनक अरुचि, ग्लानि, निन्द्रा और खप्नदर्शन आदि रोगोते आहार-विहारादि रूप निदान द्वारा चे तीन दोष कुपित पूछ लेना उचित है। हो कर रोगोत्पादन करते हैं । इसके सिवा कतिपय यदि दो या तीन रोगोंके मध्य कौन रोग हुआ है इस. उत्पन्न रोग और रोगविशेषका निदान होता है । जैसे- का पता न लगे तो पहले सामान्य औपधका प्रयोग करे। घर सन्तापसे रक्तपित्त, रक्तपित्ससे ज्वर, ज्वर और इससे उपकार वा अपकार समभ कर रोगका निर्णय रक्तपित्त इन दोनोंसे राजयन्म, प्लीहाद्धिसे उदररोग करना होगा। लक्षण विशेप द्वारा साध्यता, आसा. उदररोगसे शोथ, अर्शसे उदररोग वा गुल्म, प्रतिश्यायसे ध्यता वा जाप्यता निश्चय करना होता है। रोगीके कास, काससे क्षयरोग तथा क्षयरोगसे धातुशोप आदि अरिष्टलक्षण उपस्थित होनेसे मृत्यु स्थिर करनी होती रोग उत्पन्न होते देने जाते हैं । इन सब रोगोत्पादक है। रोगीकी नाडी, मूत्र, नेल, जिला आदिको विशेष रूप रांगोंमे से कोई कोई रोग अन्य रोग उत्पादन करके भी से परीक्षा करना आवश्यक है। स्वयं वर्तमान रहता है तथा कोई सेग अन्य गेगोत्पादन । रोगोत्पादक दोप-सारे शरीरमे परिष्याप्त हो कर कर निवर्तित होता है। जो सव मृत्युलक्षण दिखाई देते हैं उन्हें अरिष्टलक्षण