पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/१४९

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गाक ममझा सकते हो', शास्त्रकारों के मतानुसार वे ही गणक ब्राह्मणीक माथ इनको कन्या का आदान प्रदान नहीं कहलाते हैं। (बहस हिसार.) होता है। इन लोगोंमसे बहुतौन जयोतिषशास्त्र अध्ययन ४ जातिविशेष । इनके प्राचार वावहार ब्राह्मणोंसे कर प्रतिष्ठा और उवति प्राप्त को है। इन लोगों में जो मिलते जुलते हैं। किसी किसी देशमें इन्हें ग्रहविप्र या शिक्षित और धनी है, उन्हींका आचार वावहार उच्च- प्राचार्य कहते हैं। ब्रह्मयामलके १४वां अध्यायमें थेगोके ब्राह्मणों जमा है। इनके साथ उच्चयणीक ब्राह्मणी- लिखा है- का कोई भेद देखा नहीं जाता है, सिर्फ आदान प्रदान "शरीपेच वेदाग्निः शाकीपेर सिङ्गतिः । भूमध्ये ब्रह्मचारी च देवशी हाकापुर। की प्रथा प्रचलित नहीं है । दूमरे बहुतसे अशिक्षित वर्ग- द्राविड मथिले व याविप्रति सजकः । विप्र या गणक ब्राह्मण हैं, जो ग्रहदान लेकर हो अपनी धर्मागे धर्म वका च पञ्चासे शास्त्रिमशकः ॥ जीविका निर्वाह करते हैं, नया वर्ष आने पर ये घर भारम्बने भमुखी गान्धारे चिवपषितः । घर घूमतं और न तन पञ्जकाका फल सुना कर गृह- तोर होवे , तिथिविनाटके मरस च । स्थो से दक्षिणा या पारिमिक स्वरूप चावल, दाल, वस्त्र बटान जी सियो विप्रो ब्रह्माले विधिकारकः । और फल प्रभृति पाते हैं। उपर जिन उच्चथ गाकि गणकों- वभाटे योगवेत्ता च लिटाने देवपूजकः ॥ का उल्लेख हो चुका है, उनके माथ उन लोगों का राशे सपाध्यायो गया तमधारकः । कोई मम्बन्ध जान नहीं पड़ता है। उच्चर्थ णो के ब्राह्मण कनिकामनामा च भासायाँ गोडदेशकः ॥" (सामन १४श अध्याय) भी इन्हें अपनो जातिक समान नहीं मानते हैं । उनका गणक जातिके लोग शरडीप और शाकद्वीपमें वेदाग्नि, आचार व्यवहार ठीक चगडाल जमा है । ये चगडालका भूमध्यमें ब्रह्मचारी, द्वारकामें देवस, द्राविड़ और मिथि- छपा हा जल पीते हैं। इन्हें गलेमं यदि यज्ञोपवीत लामें ग्रहविप्र, धर्माङ्ग में धर्मवेत्ता, पाञ्चालमें शास्त्री, मरम्वती नदीतीरमें शुभमुख, गान्धारमें चित्रपण्डित, तोर लटकता न रहता तो ये ठीक चण्डालमे माल म पड़ते। इनका स्पर्श किया हुआ जन्न अपवित्र ममझा जाता होत्रमें तिथिवत्, लाटदेशमें ऋक्ष, रुद्रानमें ज्योतिष, ब्रह्ममें विधिकारक, वभ्राटमें योगवत्ता, लिटानमें देव- है। ब्राह्मण, कायस्थ अर वैश प्रभृति उच्चथ गाोक हिन्द पूजक, राढ़देशमें उपाध्याय, गयामें तम्बधारक, कलिङ्ग- इन्हें चाण्डालक ममान मानत हैं। इनमे बहुत पूर्व- देशमें जान और गौड़देशमें आचाय कहलात बङ्गाल, फरिदपुर प्रभृति स्थानों में रहते हैं। चगडालके ग्रहदोष शान्तिके लिये जो कुछ दान करना होता है, पुरोहितके माथ इनका आहार व्यवहार और आदान 'वह इन्हीं ब्राह्मणों को मिलता है। इस देशके लोगों का प्रदान चला आता है। कहीं कहीं उनमेंमे थोड़े चण्डालों- विश्वाम है कि ग्रहविप्रकी दान देनेसे ही ग्रह मंतुष्ट का पौरोहित्य भो करते हैं । ये अपनको उच्चयणीक होता है, ग्राहस्थों का कोई अमनल नहीं होता है। गणकोसा ममझते हैं। किन्तु कोई विश्वाम नहीं कर शब्दको वा त्पत्तिके अनुमार अर्थ लगानेमे वे ही गणक सकता है कि इनके माथ उच्च गोक गणकीका कोई कहला मकते जो ज्योतिषशास्त्र अध्ययन करते तथा सम्बन्ध है। ग्रहोंके गतिनिण य और कोष्ठो गणना कर शुभाशुभ फल |. मनुने जिन ममम्त मङ्कर जातियांका उल्लख किया है निर्णय किया करते हैं। यदि ब्राह्मण, कायस्थ, वैश उनमें इन लोगोंका नाम पाया नहीं जाता है। कद्र- प्रभृति दूसरी कोई जाति ज्योतिषशास्त्र अध्ययन कर यामन्लोड जातिमालामें लिखा है- उसका वावमाय करें तो उनको गणाक नहीं कहते वरन "देवलात गपको जातो मागम समुद्रवः । वे ज्योतिषिक, ज्योतिर्विद् प्रभृति दूसरे किसी नामसे सस्य इत्ति दो विप्र तिथिवा विवचनम ।" पुकारे जा सकते हैं। किन्तु पूर्व कथित जातियों में देवम्ल ( पडा )क औरम और वश्याक गर्भ से कोई कोई ग्रह गरसनाकी बात तो ,र रहे नक्षत्र के नाम गणक जातिको उत्पत्ति है। तिथिवार प्रभृतिको गणना 'नहीं जानने पर भी गणक कहलाता है। दूसरे दूसरे | करना हो इनकी वृत्ति है। इस प्रमाणके अनुसार मान