पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/२४४

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२४२ गभाधान चर्म उपजता है। उसका अधिपति चन्द्र है। षष्ठ करनको कहता है। ** छन्दोग-परिशिष्ट के अनुसार विवाह मासको रोम आते हैं। उसका अधिपति शनि है। और गर्भाधान मस्कारके बीच एक थाड करनेसे हो सप्तम मामको चेतनाका प्रादुर्भाव होता है। उसका काम चल मकता, प्रत्येक कर्म के पहले आभ्य दयिक अधिपति बुध है। अष्टम मासको भोजनशक्ति आती नहीं करना पड़ता। लौकिक प्रथा अथवा विलुप्त शाखीय है, उसका अधिपति लग्नाधिपति ही है। नवम माम विधिक अनुमार गभांशयको शुद्धिको मन्त्रपूत पञ्चगव्य उदे ग उठता है। उमका अधिपति चन्द्र है। दशम भक्षण करनेका नियम है। मामको प्रमय होता है। उमका अधिपति सूर्य है। आश्वलायन-यापरिशिष्ट में गर्भाधान विषयपर इस जिन ग्रहोंका उल्लेख किया गया है, गर्भाधान कालको प्रकार लिखित हुआ है- उनमें कोई ग्रहयोड़ित रहनेमे उसी ग्रहके माममें गर्भ विवाहकै बाद ऋतुमती नवोढ़ाके मङ्गलार्थ प्रजापति पातादि होता है। फिर उनके बलवान् रहनमे उमो देवताके उद्देशमे होम करना चाहिये। उमकी रीति उमो महीने गर्भ की पुष्टि हुआ करतो है। यह है कि प्रथम ऋतुक १६ दिनोंमें शुभ मुह को पवित्र सश्रुतके मतमें अतिशय सुद्धा, चिररोगिणी वा अन्य तामा मनोहर वेशधारिणी नवोदा रमणीक माथ गर्भाधान किसी प्रकारको विकारयुक्त रमणीका गर्भाधान करना कार्यके अनुष्ठानमें लग स्थाली में विधिक अनुसार चरुपाक एकान्त निषिद्ध है। अतिशय वृद्ध, चिररोगग्रस्त वा करके उमका कियत् अंश प्रजापति देवताके उद्द शमे किसी प्रकारके दूमर विकारयुक्त पुरुष लिये भी गर्भा. अग्नमें आहुति देते हैं। अशिष्ट चरु दम्पतीक भोजन धान करना अनुचित है। प्रथम ऋतुमें गर्भाधान मस्कार को रख छोड़ा जाता है। फिर “विश्पोंनि ५ पयत्" इत्यादि कर लेनमे फिर किमी ऋतको वह आवश्यक नहीं होता। मन्त्रमे वृताहुति प्रदान करना चाहिये । स्थाना- देवल कहते हैं कि रमणियोंका एक बार सस्कार होनसे न्तरमें यह भी लिखा हुआ है, उसके पीछे क्या करना सभी गीका सस्कार हो जाता है। अतएव गर्भाधान, पड़ गा। प्राजापत्य होमके बाद जिम क्रिया हारा गर्भ पुंसवन और सीमन्तोवयन एक ही साथ करना लाभ होता, करना उचित है। इमीका नाम गर्भलम्भन चाहिये। है। उमकी रोति यह है कि कई एक निषिद्ध रात्रियां गोमिल ग्राह्यसूत्र ( १.५) में गर्भाधान-प्रणाली परित्याग करके दम्पतीका शरीर सुस्थ रहनेसे सुन्दर मु- इस प्रकारसे लिखी है-रजःस्रावके प्रथम तीन दिनकेसज्जित तथा सुगन्धि कुसुम प्रभृति हारा सुवासित एहमें बाद शुम मुहर्त को किसी प्रकारका दोष वा प्रतिबन्धक नानाविध आभरणोंसे विभूषित, अङ्गरागरञ्जित, माख्य न रहनेमे गर्भाधान किया जाता है। गर्भाधान दिवसको चन्दन द्वारा परिशोभित और शुक्ल वस्त्रधारिणी रमणोको माय मध्या अतीत होने पर पतिको पवित्र भाव और पलंग पर लेटा करके अपने पापभी सुस्त्रात और माल्यादि पवित्र शसे "मा विपने विणइत्यादि मन्त्र द्वारा सूर्याध पवित्र वेशभूषित हो करके शयन करना चाहिये। फिर प्रदान करना चाहिये । फिर “विषयोनि कल्पयतु त्वष्टा ६१- थोडीसी टूर्वा पोस करके उमका रस "उदौति: पतिवतो हापा व विमत वा सिन्धत प्रजापतिर्धातो गर्भ' दक्षात ते ॥ (मन्चबाय १४।६) विश्वावसु नमसा गौर्मिरो। पन्धामिछ पिवषदं व्यत्र यते भालो जनगा और "गर्भ' हिसिनी वावि गर्भ' घेहि सरस्वती। गर्भ से पश्चिमी देवा तस्य विमा १०१८५२१) और "उदौर्षामो विश्वावमसेका- वाधत्ता प्रकरस जो।" ( मन्त्र मा० १॥४॥७) मन्त्र उच्चारण करके महत्वा । अन्धामिच्छ प्रफ सजाय त्यासाज - ( काक:०८५।२९) दाहने हाथमे पत्नीका योनिदेश छुते और उसके बाद दोनों मन्त्र पढ़ करके दम्पतीको नामिकामें सेचन करते मनात होते हैं। इसीका नाम गर्भाधान संस्कार है। अथवा अश्वगन्धाका चूर्ण झोने कपड़े में बांध बत्ती बना ___पचतिप्रणेता भवदेवभट्टके मतम योमिदेश स्पर्श लेते और पूर्वोक्त दोनों मन्त्र उच्चारण करके दम्पतीके करके अपरके दोनों मन्त्र पढना पडते है। कोई कोई •"निषे कहाती बोच समन्तोन्नयने तथा । .. विवाहकी भांति गर्भाधानके दिन भी पाभ्य दयिक श्राप यं पुसवने च च वार कर्माकमेव च ॥ (सस्कारतात्वन भविपसाब)