पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३५०

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गौत उनको यन्त्र और प्राणीक मुखमे गानवाला को गात्र प्रमारिणी, प्रीति, मार्जनी, क्षिति, रक्ता, सन्दोपनी, आला- कहते हैं। किन्तु चलती बोलोम यन्त्र को गोत न कह , पिनी, मदन्ती, रोहिणी, रम्या, उग्रा और क्षोभिणी। इन- करके वाद्य नाममे उन्ने ग्ख करत आर केवल मुखसे निक- के मध्य तीवा प्रभृति चार षडजम, दयावती आदि तोन लनवाल का गीत समझते हैं। ऋषभर्म', रोद्रो तथा क्रोधा नामक दो गान्धारम', वजिका सब तरह गानों का मूल कारण नाद है। महीना प्रति चार मध्यममें, तिति आदि चार पञ्चममें, मदन्ती शास्त्रक मतमे आत्मा वा चेतन जब कोई ध्वनि करना प्रभृति तोन धैवतमें और शेष २ 'थुतियां निषाद स्वरमे चाहता उमा इच्छामे अन्त:करण चालित होता है। लगता हैं । (मतदप ४३५६) इसमें शरीरस्थ अग्नि चोट खा करके भभक उठता और , मतङ्गक मतानुमार थति ६६ भागांम बंटी है। उन उमो उद्दोमा अग्निके तेजसे ब्रह्मग्रन्थिस्थित वायु चालित का नाम है-मन्द्रा, अतिमन्द्रा, घोरा, घोरतरा, मण्डना, हो करकं अध्व पथमें गमन करता है । चान्नित वायुके । सौम्या, ममना, पुष्करा, शसनो, नीला, उत्पन्ना, अनु- आघातमे क्रमशः नाभि, हृदय, कण्ठ, म र्धा ओर मुख- नामिका, घोषावती, नीलनादा, आवर्तनी, रणदा, एक- प्रभृति स्थानों मवनि होता है। इमोका नाम नाद वा गम्भीरा, दीघतारा, नादिनी, मन्दजा, सुप्रमबा, 'ननादा। श्रुति है। नाद---अतिसूक्ष्म, सूक्ष्म, पुष्ट अपुष्ट तथा यह २२ थतियां मन्द्र मप्तकमें हुवा करती हैं। नादान्ता, कृत्रिम पाँच भागों में बंटा है। किन्तु गात व्यवहारमे । निष्कला, गूढ़ा, मकला, मधुरा, गन्नो, एकातरा, भृङ्ग- उमको मन्द्र, मध्य पार सार तीन ही भागो में विभक. जाति, रमगोति. सुरङ्गिका, पूर्णा,अन्न परिणी, वांशिका, करत हैं वैणि का. त्रिस्थाना, सुस्वरा, मौम्या, भाषाङ्गो, वातिका, हृदय, गन्नदेश और मूर्धा स्थानमें उत्पन्न नाद का यथा मम्प , प्रमन्ना और मव व्यापिनिका-२२ थ तिया क्रम मन्ट्र, मध्य और तार कहा जाता है। मन्द्रमे मध्य मध्यमाकमें लगती हैं। ईश्वरी, कौमारो, मवरालो, और मध्यस तार हिगुण होता है। यह नियम शगेग्में। महाका, शशिनी, राका, भोगवीर्या, मनोरमा, मुस्निग्धा, चलता, वीणायन्त्रमें उसके विपरीत पडता है। वाद। दिव्यागा, सुललिता, विद्रुमा, लज्जा, काली, सूक्ष्मा. अति काई मङ्गोतविद नाद वा श्रुतिको बाईम, कोई ध्यामठ । सूक्ष्मा, पुष्टा, सुपुष्टिका, रोकरो, कराली. विम्फोटान्ता और कोई ३ भागामें बांटता है । मङ्गोतरत्नाकरप्रणता और भदिनी--तार महाकको २२ थ तियां हैं। शाङ्ग देव निग्वत कि ऊर्ध्व नाड़ी अर्थात् सुषुम्ना मलग्न मगोतर बाकटीका ३१३) २२ नाड़ियां वक्रभावमें अवस्थित हैं। उनके योगमे २२ मङ्गोत ममयमार-प्रणताके मतमें नामिका, गठ, प्रकारके नाद वा श्रुतियां निकलती हैं। इमोसे अतिः । उर, ताल, जिह्वा और दन्त-षडविध स्थान मम्बमम को २२ भागांमें बांटना उचित है। उत्पन्न होनेवाला स्वर षड्ज कहलाता है। नाभिमगडल इन श्रुतियाम षड्ज. ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, का अवंगत वायु कण्ठ तथा शोष देशमें आहत होन धवत और निषाद ७ स्वर उत्पन्न होते हैं ।* गीतशास्त्रमें । ऋषभ अर्थात् वृषभके निनाद जैमा स्वर निकलन पर इन मातो स्वरोंको म, रि, ग, म, प, ध, नि-नात संक्षिा ऋषभ नाम पड़ता है। गन्धक अतिशय मुख हेतु जैसे नामोसे उल्लेख किया गया है। षड्जमें चार, ऋषभमें । तृतीय स्वरको गान्धार कहते हैं। नाभिका ऊर्ध्वगत वाय तोन, गान्धारमें दो, मध्यममं चार, पञ्चममें चार, धैवतमें आहत हो करके हृदयमें जो स्वर उठता, मध्य ठहरता है। तीन और निषादमें रहा श्रुतियां रहती हैं। प्रोष्ठ, कण्ठ, शिर, हृदय और नाभि---पञ्च स्थानामे निक- सङ्गोतदर्पण ( ५३१५६ ) में इन २२ वतियोंका लनेवाला स्वर ही पञ्चम है। नाभिका उपरिगत वाय -- नाम मिलता है। यथा--तोत्रा, कुमुद्दती, मन्द्रा. छन्दो-, कण्ठ, तालु, शिर और हृदयदेशमें धृत होने पर धैवत वती, दयावती, रञ्जनी. रतिका, रौद्री, क्रोधा, वञ्चिका, स्वर निकलता है। निषादमें अपर सकल स्वर अवस्थित • वेद षा के छन्दशास्त्र में भी इन सातो स्वरों का उल्लेख है। । वा विरत होते हैं। (सकोतरनाकर २१९ टोका)