पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३५९

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गोता निकट वलिद्वीपमें 'कवि' नामको किमी प्राचीन अनन्त और पूर्ण होता है। उमको दुर्जय आभावत् भाषामें महाभारतके अनेक भागों का अन वाद मिला शक्तिमेंसे प्रक्तात वा त्रिगुणात्मिका मायामेंमे यह अनन्त जगत है। मम्भव है, उममें गोताका भी उलथा हो। काशीर्त निकलता और उमीमें मिलता है। इसी प्रकार पुनर्जा एक विद्याविशारद धर्म परायणा मन्यामोन बतलाया है और पुनल य अनन्तकालव्याम है। ईश्वर अपने आप कि उमन चीन देशीय किमी परिव्राजक हाथमें गोताक निषक्रिय होते भो मायावृत हो जोवलोकमें देहधारख चोना अन वाद देखा था । अमेरिकाकै मर्व प्रधान कति करता है। वह देही ( जीवात्मा) वा पुरुषपदवाथ है दममन गीताक अहत भावमै उन्मत्त रई । और वही स्वयं पुरुषोत्तम है। प्रकृतिक नियमम देहका गरुडपुराण, पद्मपुराण, वराहपुराण प्रभृति पुगणा जन्म, वृद्धि, ध्वम अर्थात् विकार होता है। किन्तु देह- ओर वैषणवीय तन्त्र आदिम गोतामाहात्मा विविध नाशसे देहो नहीं मिटता, देहान्तर मात्र धारण करता भावम प्रकाशित हुआ है। दूमर यह भी सुस्पष्ट ममझ है। देही ( आत्मा ) अविनश्वर, अजात और अविकारी पडता है कि श्रीमद्भागवतके किमो किमो अध्यायमें गोता है। वही विशेष रूपमें परमात्मा वही मत् ( ए मात्र अनक मनोहर भावों को विकृति की गयी है। स्वताश्व- विद्यमान ) है। सुतगं समस्त जगत् उमीका मूर्ति- तर उपनिषद्के भाष्यमै गोताके बहुतमे श्लोक उसके भाव स्वरूप है। उमका अंश हो अम्फ त भावमें जड़ और परिचयार्थ उद्धत हुए हैं। क्रमश: उत्तरोत्तर स्फ तिमें उद्भिद्, कोटपतङ्ग, पशुपक्षी, ___ गोस्वामी, वषाव आदि ज्ञान तथा भक्तिमार्ग के मिद्ध, ऋषि, भूमगडलातीत ब्रह्माण्ड ( द्यु लोक )वासी बरतमे ग्रन्थ गीतावलम्बनसे ही प्रकाश किये हैं। अब दिव्यपुरुष ( देवता ) और महास्फ त भावापन्न अवतार जिजाम्य है क्या कारण है जो गीता इस प्रकार सर्व होता है इमोलिये वह मत् तथा असत् ( सूक्ष्म पोर .शका महादरणीय धन बनी हुई है। डमका प्रधान हेतु असूक्ष्म ) ओर इन दानमि अतीत है। मंमार प्रात तक जो विशालतत्त्व गूढ़ानुगूढनत्त्व, सूक्ष्मानुसूक्ष्म विषय नियममे बनता और बिगड़ता है। विप्लव उठने पर अव- तार प्राविभूत और उमको क्रियासे यह शोधित होता जो लोकमात्रका आकाङ्गा तथा परित्याज्य है, उमौका है। मंमारमें प्राकृतिक नियमसे सुखदःग्व उनावित है। माधन आर वजनीय उपाय तथा फलाफल और जीवन जीवमात्र सुखान्वषो और दुःखदरकरणच्छ होता है। यावानिर्वाहका मन्मार्ग विकाश श्रीमद्भगवहीताम अति- इन्द्रिय ओर तद्ग्राही विषयक मंयोगसे जो सुख दुःख मनोहर वन्दमें रचना-चातर्य मे मक्ष पतया महश मिलता, उसका अस्तित्व नहीं देख पड़ता। ऐसा उच्च पबन्ध सम्भवपर पाञ्जलताकै माथ वर्णित हुआ है। अनित्य विषय ईश्वरको मात्मा मापने और अभ्यास बल- अनन्त जगतका निदान स्थिति तथा परिणाम जन्म से मनोविकार ला नहीं मकता। बुद्धिग्राद्य आन्तरिक जीवन एवं मरण, सुख, दुःख, देह, मन:, ज्ञान और मख हो गोताक मतानुमार मेवनीय है। म ढता, धर्माधर्म, पाप, पुण्य, कत व्याकर्तव्य, महति ईश्वरके ध्यान, ईश्वरक महिमानुभव, तत्कीर्तन और एवं अधोगति, आत्मोवति, आत्मविवाद, स्वर्ग, नरक तत्मम्बन्धाय उच्च भाव आत्मसात् करने और उसके बल प्रभृति विषयों का मदर्थ तथा उसके सम्बन्धमे विविध पर स्वतः सर्वभूतका शव मित्र भाव परित्याग करके हित पकार मस्कारापन लोगों के लिये आचरणीय सहज साधनमें रत होनसे उक्त प्रकार अखण्डनीय चिरवर्धन- मद उपदेश, कर्म काण्ड, ज्ञानकागड और भक्तिमाग, धर्मो सुग्व उङ्गत, सर्वदुःख लुप्ता और सर्वप्रकार अपर ब्रह्मानन्द, ब्रह्मार्चना और जगत्ति षिता-वत इत्यादि विषयक क्षुद्र सुख इमो महानन्दमें मज्जित होता है। विषयक परिचय उदयग्राही रूपसे गोतामें पाया जाता फलाफल ईश्वरको अर्पण करकं प्राकृतिक नियमसे जो काय अवश्य ही करना पड़ता, उसको क्रियाकै अनुष्ठान गीताको शिक्षा-एक ही ईश्वर है। वह अनादि में कभी भी दुःख नहीं लगता। परन्तु निज इन्द्रिय Vol. VI. 90