पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३६२

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गीता मीमांसा पर दृष्टि रख करके कहा हुआ है कि अव्यक्त ' और उनके प्रेममें ममा तवजयस्तदा मानस्तनिष्ठास्तत पायथाः' निराकार अनादि अनन्त निर्विशेष, अव्यय इत्यादि केवल बन ज्ञानयज्ञरत और सर्वभूतहितरत हुआ करते हैं, अति अभावसूचक शब्द द्वारा अनिर्देश्य अचिन्तनीय ब्रह्मको टुलभ हैं। वहीं मव श्रेष्ठ मान गये हैं । किन्तु अन्यान्य उपामना देहधारीक लिये दःमाधा है। फिर अपेक्षाकृत श्रेणियोंक उपामक जो पुष्य पत्र फल जन्न इत्यादि द्रव्य कचित् चिन्ताभाव( यथा--तमसः परम्तात्, दिव्यद्योतक हारा तथा होमादि क्रियासे उनको पूजते, केवल तत् भूतश्वर, भूतभावन, स्थाण, कवि, मर्वज्ञ, मवविद्यानि कम फलमात्र पात हैं। माता, ममदृष्ट, मर्वभूतका वीज, परम पुरुष, विश्व जिम कालको गोता रचित हुई, उस ममय भी कष्ण- नियन्ता, विधाता, विश्वपिता, विश्वमाता, स्रष्टा, रक्षक, मतको अवहला करनेवाले बहुतमे लोग रहे । उनके मंहर्ता, सहृत् ), मन, बुद्धि, ज्ञान, परिज्ञाता, प्राण, बन्न, प्रति करुणाभावको कथा भी गोतामें कही है । पूर्व- वीर्य, सबका आदि-मधा-अन्त इत्यादिभाव और मर्व मोमामा, उत्तरमीमांमा, योगशास्त्र मवर्क आजकल जो प्रकार उज्वल मनोवृत्तिका भाव (दया, सत्य, शम, दम, जो ग्रन्थ देख पडते उनकै मतीको अनक कथाओंका मन अभय, अहिंमा, क्षमा, पवित्रता, ऋजुता प्रभृति ) तथा और नास्तिक मत भी यथायोग्य कामतर्क माथ गीता- क्रमश: अनुभवातीत ज्योतिः ( सूर्य, चन्द्र, अग्नि, प्राक में प्रकाशित हुआ है। तिक महोज्ज्वन्न रन्द्रियगोचर पदार्थादि ) और वेद, यज्ञ, गोताका पूत विषा-श्वर, जगत्, न तत्व, मि, शान, भक्ति, पूजा तपस्या, दान, प्रणव इत्यादि ( उसके पीछे ब्रहमपति, प्रभात शब्दोंम द्रष्टव्य है। शुक्राचार्य, व्याममनि तथा कपिन्नादि ज्ञानी और प्रहा- यद्यपि महाभारतक मंग्रह कालको तत्पूर्व ममय के दादि भक्त पुराणवर्णित पुरुष इत्यादि ) म तिनिर्देशम् वेद उपनिषत् प्रभृतिक अनेक मत और उद्द,त वचन उपामना सुबोधगम्य बना दी गयी है। किन्तु शब्दों का गोताम मनिवेशित हुए है, तथापि कषणमत अन्यान्य गूढार्थ यही है कि निर्गुण ब्रह्मकी प्रभावसूचक शब्द हारा नूतन उपादानोंक माथ संघटित और विशेष विशेषस्थल- वर्णित उपरि उक्त तथा तदतिरिक्त गुणोंक माथ मिश्रित में "मे मतं" "म मतिः" इत्याकारमे सुत जत और मम- पूर्ण ब्रह्म घनीभूत आकारमें कृष्णावतार महासुलभचिन्ता थित किया गया है। है और उसके ध्यान में तद्भावाविष्ट हो करके इहलोक और सकल ज्ञानों का सार पौर मब शास्त्रों का मुख्यो- परजन्मान्तरमें उसकी प्राप्ति होती है। __ उद्देश्य साधन मानवजातिके लिये सव प्रधान कर्तव्य कष्णोपामक स्व स्व प्रकृति, शिक्षा, बुद्धि, पूर्व पूर्व है। गीतारहस्य यही है-आब्रह्मस्तम्ब पर्यन्त अनन्त कम फल और इहलोकके विविध मङ्गठनभेदसे नाना विषयका अमीम विकास्य ७०० श्लोकगत चित्र के से भावामें उनका ध्यान पूजादि करते हैं। सर्वोच्च श्रेषोक गीतामें कौनसी प्रणाली और किम नियमसे सब्रिविष्ट प्रायजा ध्यानयोगमे रूपक भाव में उनकी उपासना हुवा है। जैसे क्षुद्र वट वा अश्वत्थ वीजसे महाविशाल उठाते हैं। कोई उन्हें चतुर्भुज नारायणको एक दि- तमशाखादि प्रवर्धित होते, गोताके प्रथम अध्वायमें अर्जुन- भज म ति देवताकं भाव में देखता है। कोई उनको को विषादसूचक बहुत थोड़ी और हितोयाध्वायमें भजना वृष्णिवंशीय यदुकुलोद्भव वासुदेव माधव मधुसूदन तदानुमङ्गिक सामान्य कथासे उपयुक्त एक विशाल योगेश्वर महातेजस्वी पुरुष जगह र स्वरूप समझ करके तत्त्व निकले हैं । अजु नने कुरुक्षेत्रमें युद्धोत्साहो स्वीय हो किया करता है। कोई उन्हें कामदाता समझ करके तथा विपक्ष सैन्यदलको देख मोह प्रान हो करके अपने नाना कामनाओं के पूर्ण होने के लिये उनके स्तव पढ़ता शरीर, मन और हृदयको अवस्था तथा अपना उद्भावित है। इसी प्रकार उसकी बहुत अर्चना है। इसमें जो मत कृष्ण के समक्ष बतलाया था। इसी परिचयमें उन्होंने इहलोक वा परलोककी सर्व कामना सिविके अभिलाष उपस्थित युद्धकम करनेकी अपनी अनिच्छा भी जतलायी व जंत हो मोक्षलाभ पर भी दृष्टि न हास उनकी भक्ति और उसके लिये जो सब कारण निर्दिष्ट हुए, उनके