पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३८. गुणवृक्षक-गुगा थान बन्धनाधारः वृक्षः। नौका या जहाजका मस्त ल। । गुणमंक्रमण (सं० ली० ) जैनमतानुसार-ज्ञानावरणादि गुणवृक्षक ( म० पु०) गणवृक्ष स्वार्थ कन् । गुणवृक्ष, कमांक नमय समयमें श्रेणी ( पंक्ति ) रूप असंख्यातगुण मस्त ल। २ परमाणु अन्य प्रकृति रूप हो कर परिणमत हैं, उमका गणवृत्ति ' मं० स्त्री० ) गुणेन वृत्तिः, ३ तत् । १ लक्षण नाम गुणसंक्रमण है। विशेष । (त्रि०) २ गुणके ऊपर जिमका मामर्थ्य है ! गुणम कीर्तन ( म० लो० ) गुणम्य मकीर्तन ६-तत् । (स्त्री०) ग णानां मत्वादीनां वृत्तिः ६-तत् । व्यापार परि- गुणकथन, गुणानुवाद । णामविशेष, मत्वादि तीनों गुणोंको वृत्ति। गथा- गुणसख्यान ( मं० क्ली० ) गुणाः सख्यायन्ते ऽनेन संखया सत्वगुणको वृत्ति सुख, रजोगुण का दुःव एवं तमो । करण न्य,ट, ६ तत्। सांख्य या पातञ्जल शास्त्र ! गुणको वृत्ति मोह आदि। मत्वादि शब्द देखा। गुणमङ्ग ( स० पु०) गुणषु गुणकार्येषु सुवादिष मङ्ग गणयवित्रा ( म० क्लो. ) गुणानां वैचिचा ६-तत । | आसक्ति: ७ तत्। मुख प्रभृतिमें आमक्ति । गुणको विचित्रता, विभिवता । "कारण गगा सहोऽस्य' (गोता) गुणव्रत ( म० पु० ) जैनियोंके मूलव्रतों की रक्षा करने गुणममूठ ( म० त्रि०) गुण: समूठः, ३ तत् । गुणकार्य वाले तीन व्रत । यथा -दिग्व त, देशवत और अनर्थ - प्रभृतिमें प्रात्मा भमानविशिष्ट, जिसे अपने गुण का दण्डव्रता गौरव हो। गुणशब्द ( सं० पु. ) गुणवाचकः शब्दः, मध्यपदलो० । गुणममुद्र ( म० पु०) गुणस्य समुद्र इव। गुणनिधि, गुभयोधक शब्द। गुणाधार . गुणशालिता ( सं० स्त्री० ) गुणशालिनो भावः गुणशालिन्- गुणमागर ( म० पु० ) गुणानां सागर एव । १ गुणाधार । तल । गुणाधारता, गुणवत्ता, गुणयोग। २ चतुर्मुख ब्रह्मा ' ३ हिंडोल रागका एक पुत्र । ४ वुद्ध गुणशालिन् ( सं०वि०) गुणेन शालते शोभते शाल-णिनि। विष । गुणविशिष्ट, गुणवान् । | गुणमिन्ध ( स० पु० ) गुणस्य सिन्ध-इव । गुणाधार, गुण- गुणशील ( मं• त्रि.) गुणयुक्तः शीलः स्वभावो यस्य, सागर। बहुव्री०। मच्चरित्र, जिसमें अनेक तरहके गुण हो। गुणमिन्ध-बुदेलखण्ड के एक हिन्दी कवि। १८२५ ई.- गुणवेणीनिर्जरा (सं. स्त्री०) जैनमतानुमार-कमांक | को उन्होंने जन्म लिया था ! असम्प गर्गा सयको निर्जरा कहते हैं। निर्जराके एक | गुणम् ( म० स्त्री० ) कार्पामोक्षुप । मेदका नाम गुण श्रेणी है। मातिशय मिथ्याष्टि, थावक | गुणस्थान ( स० क्ली० ) जेनमतानुमार-मोह और योग विरत, अनन्तानुबन्धी कर्म का विमंयोजन करनेवाले । (मन, वचन और शरीरका हलन चलन ) के निमित्तसे दर्शनमोहनीयकम के सय करनेवाले, कषायों ( क्रोध सम्यग्दर्शन, १ मम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप आत्माके मान माया, लोभ ) को उपशान्त करनेवाले, कषायोंको गुणों की तारतम्य रूप अवस्थाविशेषको गुणस्थान कहते उपशम और क्षपण करनेवाले ८, ८ १०३ गुणस्थानवर्ती हैं । गुणस्थान चौदह होते हैं-१ मिथ्यात्व, २ मामा- जीव मोहको क्षोण करनेवाले और मयोगो प्रयोगो दोनों दन, ३ मिश्र, ४ आविरतसम्यग्द,ष्टि, ५ देशविरत, ६ प्रकारके जिन. इन ग्यारह अवस्थामें स्थित जीवोंके द्रव्य प्रमत्तविरत, ७ अप्रमत्तविरत, ८ अपूर्व करण ८. अनि- को अपेक्षा कर्माको क्रमसे अमंख्यातगुणी अधिक निर्जरा तिकरण, १० सूक्ष्म साम्पराय, ११ उपशान्तमो, १२ होती है, इसीको गुणश्रेणोनिर्जरा कहते है। क्षीग मोह, १३ सयोग वली और १४ अयोगकेधली । ये ( गोरमार जोय. १६६-) नाम मोहनीय कर्म और योगों के कारण हुए हैं। गुणनाधा (सं० स्त्रो०) गुणस्य बाघा, ६-तत् । गुणको मिथ्यात्व, साप्तादन, मित्र भोर अविरतमम्यग्द,ष्टि ये प्रशंसा। | पादिक चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म के निमित्तसे