पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/५४६

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५४४ गाव और काश्यप पाठ कर दिया जाय तो कोई गड़बड़ ही न | प्रतीत होती है। किसी तरह “यदपत्य तहोत्र" इस रहे। छप हये आश्वलायनश्रोत्रसूत्र में और हस्तलिखित | अंशको वसो कूट व्याख्या कर लो तो क्या परन्तु रघु- गोत्रप्रवरदपणमें गोतम पाठ है। नन्दन और धनञ्जा आदि ग्रन्थकारकृत "एतेषां यान्यप ____किमी के मतानुसार बौधायनने गोत्रसंग्राहक श्लोकोंमें त्यानि तानि गोत.णि मन्यन्ते' इत्यादि बचना का अन्य जिन आठ गोत्रोंका उल्लेख किया है, उमक अतिरिक्त भी किमो प्रकारको व्याख्या हो हो नहीं मकतो। इनके बहुतमे गोत्र देखनमें आते हैं और अन्यान्य ग्रन्याम उन पुत्रपौत्र आदि मन्तानीको उनके गोत्र समझना चाहिये । ' का उल्लेख भी है। इसलिये उम रचनाको उपलक्षण एमो दशामें यही व्याख्या स्वीकार करनी पड़ेगी। मानना पड़ेगा और वोधायनने लिखा भी है कि --- "arम्पति गामश्व मवमषिमुत्तम् . वापा तु सहमणि प्रयुताय दानि च । मत्स्य वामदेव पजाम्यमपि तथा। जनपवादव षो प्रग मृषिदशकात पता षयः मा. गावकाराः प्रकीरिस:। अर्थात --गोत्रीको कुक मंख्या तीन करोड है। व्याख्या तेषां गावममतपन्नान गाव चि में ॥ (मत्स्य५० ८६०५) कारोनि इम श्लोकका एमा अर्थ किया है कि, -- वास्तव में यहां पर जो "तेषां गोत्र समुत्पन्नान्' ऐमा पाठ है, तीन करोड़ गोत्रीका प्रतिपादन करना--दूम वचनका | उममे माफ ही मालूम हो रहा है कि, गोत्रप्रवर्तक ऋषि- उद्देश्य नहीं है। हां, सहस्ररश्मि, महस्रपाद, महस याँक माथ गोत्र शब्दका षष्ठी ममास होता है। आश्व- शीर्षा इत्यादि शब्द जिम प्रकार अनियत मंख्याके लिए लायनक वृत्तिकार नागयगा, मञ्जगकर्ता पुरुषोत्तम और प्रयोग किये जाते हैं, वमे हो इसका भी प्रयोग किया दर्पणकार कमलाकर आदिक मतम गोत्र शब्दका अर्थ गया है । अन्यान्य ग्रन्थों में गोत्रीको मख्या जितनी लिखी अपता वा मन्तान है। गोत्रप्रवर्तक ऋषियोंकि वंशधर है, वही मान्य है। असल बात यह है कि, बौधायन के साथ गोत्र शब्दका अभेद अन्वय होता है। परन्त भी उक्त श्लोकमें वह स्वीकार करते हैं कि, इन आठ गोत्रों एसा होनसे तो "कश्यपगोत्रस्य श्रीमता अमुकोदेव्या:" के सिवा और भो गोत्र हैं, और इम वचनको उपलक्षण यह वाक्य भी बनमकता है। इसके अलावा "म गोत्राद समझना चाहिये। एमी अवस्थामें गोतम और कश्यप भ्रष्यते नारी विवाहात् महाम पद । पसिगोत्र ण कत्त व्या पाठ होने पर भी कोई हर्ज नहीं, क्योंकि बौधायनने उक्त स्तस्या: विण्डोदकक्रिया: ॥" मा भी देखनमें पाता है। रचनामें कश्यप और गोतमगोत्र हीका निरूपण किया है।। ऐसी दशामें गोत्रप्रवर्तक ऋषियोंक वशधरीक माथ सुप्रसिद्ध काश्यप और गौतमगोत्रका निश्चय अन्यान्य गोत्र शब्द का भेदान्वय ( अर्थात् पतिका गोत्र यह है ) है, ग्रन्थों के अनुमार करना पड़ेगा, क्योंकि बौधायन वह भी स्वीकार करना पड़ेगा। इसलिए इन विरोधी शागिड ल्य, मावण श्रादि द्रमा प्रमिद्ध गोत्रोंको भांति को मोमांसा के लिए उभय लिङ्ग स्वीकार कर लिया जाय कश्यप और गोतमगोत्रका उल्लेख नहीं किया । तो झगड़ा हो निपट जाय। __मन्जरीके कर्ता पुरुषोत्तम शेषोक्त व्याख्याको स्वीकार १-गोत्र शब्द नपुंसकलिङ्ग है, उसके तोन अथ हैं--- ही नहीं करते। उनके मतसे यदि वह व्याख्या स्वीकार १म वश, कुल। * २य वश परम्परा प्रसिद्ध आदि कर ली जाय तो बोधायनके उम वचनसे यह ममझा | पुरुष ।। श्य अपत्य, मन्तान, पुत्र पात्रादि ।२. गोत्र जाता है कि वे सिर्फ आठ ही गोत मानते हैं और फिर म जमदग्न्यादान्गस्तान्तान्यष्टो गावापोतुक: पूर्वाप विरोधादम गतं स्यात "गोताणां तु सहस्राणि" इस वचनमे बहुतसे गोतीका सदीयपचे तु मासि कविद दोष. (गावप्रवरमधी) •'गोचामिनः कुल' (अमर)। 'गोवा भगवायागाँव गल गोय' उल्लेख करते हैं, इमलिए शेषोत व्याख्या म्वीकार कर कुलाबायो: । मे दिनो। ली जाय तो स्वयं बौधायनके बचनों में हो परस्पर विरोध "पत विधानेश्वरगाव परम्परामिड- ( मौववाद)। पाता है (१)साक्षबमें अन्सकी व्याख्या प्रमजतही "गोवंशपरम्परामिडमादिपुरुष प्राप" (गन्दाबढुम) (१) "पवनमबोधास्य व्याख्य , “गावाचा समा "षा याच पत्यानि तानि गोवापि मन्यम्त ।" (न तम प्रहरी पोस्यवसमजाक गावारिवामिका वानिकामीयाशियां विस-पपोत प्रवनिमीकम् । (पा०१६)