पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/५११

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पारण-मारना ४५३ सबसे होम करना उचित है। साधक दक्षिण मुंह बैठ ! "दीर्घाकारी कृष्णवर्णा सदा स्तनमस्तकाम् । -कर, शत्रुका नामोचारण करते हुए त्रिकोणकुण्ड में दो। नमुपदयुगलं हस्तं च मन्ती दिगम्वरीम् । ..पहर रातको होम करे। शत्रु नाशकरी देवीं ध्यायतशत्र क्षयाय च !" किसी निर्जन प्रदेशमै धा श्मशानमें मारणादि अमि. इस मन्त्रसे ध्यान करके हलदी और ईटके चरको धारकार्य उत्तम है । जिस स्थान पर बैठ कर मारण- घाम हाथमें ले और 'भो शत्र नाशकय नमः' इस मन्त्रसे कार्य करना होगा उसके चारों ओरको रक्षा राजाको धारा दे। जिसका मारण करना होगा, उसका नाम ले करनी चाहिये। साधक स्वदेशमै वा समण्डल, अमि. कर 'अमुकस्य शोणित पिव पित, मांस खादय खादय ही नमः चारादि कार्य न करें। यदि कोई प्रमादयशतः ऐसा करे, इस मन्त्रसे दोपहर रातकी पूजा करके १०८ बार जप "ती अनेक विन होता है। करना होगा। ऐसा करनेसे ग्यारह दिनमें उसे ज्यर - बहेड़े गृक्षकी लकड़ीसे आग वाल कर बहेड़े और आता और पोसवें दिनमें मृत्यु होती है। ( योगिनीतन्त्र करअफलको नागकेशरके रसमें अभिषिक्त करके होम | पूर्वख० ४ पटल ) दूसरा तरीका-साढ़का गोवर ले कर करे। इससे अतिशीन शत्रुका नाश होता है। करज- शिय यनाये। पोछे उस शियका यथाविधान पूजन करने- वृक्षकी लकड़ीसे आग वाल कर उस वृक्षके सगिधको से मारण होता है। कटुतैल-मिश्रित करके यदि होम किया जाय, तो शत्रुका मारणके बहुतसे उपाय तलादिमें पतलापे गपे है। मारण होता है। बहेड़े. वृक्षको लकड़ीको आगमें उस | विस्तार हो जानेके भयसे यहां कुल नहीं लिखा गया । - गृक्षके फलको घृतयुक्त कर होम फरनेसे शत्रु ज्यराभिभूत | गुरुके निकट अभ्यास नहीं करनेसे इन सब कामों में हाथ हो मृत्युमुखमें पतित होता है। कपासके यीजको कांजीमें नहीं डालना चाहिये। क्योंकि इसमें पद पदमें विनका मिला कर उससे होम करनेसे शत्रुगण आपसमें कलह | सम्भावना है । अतपय मारणकारो व्यक्तिको इसमें बहुत .. फरके मर मिटते हैं । सरसों, सौंठ, पीपल और.मिचं इन सायधान रहना चाहिये। सब द्रव्यों को पकत घीमें मिला कर यदि होम किया 'ग्वास्पिच गवास्पिच मूत्रनिर्माल्यमेव च। जाय, तो शत्रुको ज्यररोगसे.त्यु होती है। ऋग्वेदोक्त भरेर्यो निखनेत् द्वारे पञ्चत्व मुपयाति सः॥" लवण मन्त्रसे अभिचारकर्म भी किया जा सकता है। (गरुडपुराण १६६ भ०) ...मारणादि अभिचारकर्म विशेष कटसाध्य है। इस गोधको पहो, गायको हड़ी और मूत तथा लिपे इसमें विशेष सायधान रहना उचित है। इसमें निर्माल्यको शलुके दरवाजे पर गाड़ देनेसे उसको मृत्यु किसी प्रकारको अङ्गहानि होनेसे विपरोत. फल होता है। होती है। मतपय सुशिक्षित.. क्रियावान् तन्त्रशास्त्रमें सुपण्डित ___४ भस्मकरण । आयुर्वेद में लिखा है, कि रलादिका ध्यक्ति द्वारा यह कार्य कराना चाहिये। - " (पटकर्मदीपिका) मारण करके उसका व्यवहार करना चाहिये। जिस “योगिनीतन्त्र में मारणको विषयस प्रकार लिखा..! उपायसे रत्नादिका दोष पिनष्ट होता है उसे मारण " मङ्गलबार में अष्टमी तिथि पड़नेसे उस दिन रातको कहते हैं। मारणको वैधकमें मस्म भी कहा गया है। खैरकी लकड़ीका मगार ले कर लौहफलफ, शत्रु को | धातु और रत्नादिका मारण विषय उन्हीं सब शन्दोंमें देखो। प्रतिकृति अहित करनी होगी। पीछे उस अडित शत्रु के । (मारतंद (संपु०) मायड देखो। मस्तक, नेत्र, ललाट, हृदय, कर, नामि, गुहा, कटि, पृष्ठ मारसंघमंसल (संपु०) मारह मादल देखो।। 'और दोनों पैर आदिमें स्वाहान्त चतुर्दशाक्षर मन्त्र लिखने भारतहसुव (सपु०) मार्त यहमुद देखो। होंगे। यथाक्रम मन्तवणों को लिख कर उसकी प्रतिमा.मारतोल (हि.पु:) एक प्रकारका पड़ा थोड़ा। फरनो होगी। पीछे सहारमा करके जयपदादेयोका मारना (हि० कि० ) १ वध करना, घात करना, प्राण ध्यान करना होगा। ध्यान इस प्रकार है -... लेना। २ दुःख देना, सताना। ३शन आदि चलाना Vol, I nt