पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/६०७

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पाहिप्य तरहका जघन्य माहिन्य समझ कर सम्भवतः उधश्रेणोके गये। शापपीड़ित कैयन ब्राह्मण प्रायः हो गपे । ब्राह्मण उनके पौरोहित्य नहीं करते। इसीलिये पालिक- इस समय भी ये ब्राह्मण दाक्षिणात्य यास करते कैवर्त धनसम्पन्न हो कर बहुत दिनोंसे दक्षिण बङ्ग गार' हैं। ये पराशर नामसे प्रसिद्ध है और उस ग्रामण- मेदिनीपुर जिले में प्राधान्य लाभ करने पर भी किसी समाजमें निन्दित है। कहा कदा इन्होंने अपने कर्म- अज्ञात-कारणसे जालिक कैवत्तोंके पौरोहित्य प्रहण करने । निष्ठा गुण भीर. ऐश्वयेके प्रभावसे कुछ कुछ उपता प्राप्त पर याध्य हुए थे। आश्वलायन जघन्य माहियोंको पुरो ! को है। हिन्दू समाजमे ज्ञालिक फेयताको अपेशा उनके हिताई करनेवाले ग्राह्मणों को गद्विज और अनाचरणीय पुरोहित होनावस्थापन्न है। यास्तयिक माश्यलायन- कह गये हैं। इस तरहफे ब्राह्मण स्कन्दपुराणकं सहादि- स्मृति और सहाद्विवएडस भी यही मालूम होता है। पएडमें "शुद्धप्राय" कैवर्त ब्राह्मण कहे गये हैं। पे वर्ग "कन्याकुमारी चेकर नासिकात्र्यम्बकः परः। पुरोहित 'पराशर', 'प्यासोक', 'दाक्षिणात्य' और 'दाथिई । सीमारूपेण विद्यते दमिप्योत्तरता, शुभौ ॥२६ श्रेणोके पासण कहे जाते हैं। सहादिखएडमें इनको शतयोजनायामय विभेदै सतथा तलम् । भावायये तदा देशे वैवान प्रेन्य भार्गवः ॥३० उत्पत्ति इस तरह लिखी हुई है-- छित्वा सदिशं कपठे यशयमकल्पयत् । __“भगवान परशुरामने सधादिङ्ग पर चढ़ कर देखा, दाशानेय तदा विमान चकार मगुनन्दनः ॥३१ कि गिरितरका चुम्यन करता हुआ फल्लोलमय उत्ताल- कोणीतले यद्यदस्ति पुनस्राप समर्न तत् । तरङ्गाकुल समुद्र प्रयादित हो रहा है। परशुरामने पर ददौ स्वदेशेभ्यो दुर्भिस' मा भत्यिति ||३२ समुद्रको शीघ्र ही हट जानेका हुपत्र दिया। साथ ही इति दत्त्वा पर तेभ्यो जामदग्न्यः कृपानिधिः ॥३६ अपना परशु भी चलाया। जहां जा कर परशु गिरा, गोकर्ण प्रययौ रामो महालदिलया। यहां तक समुद्र सूख गया और वहीं समुद्रको सोमा तत् सत्यमन्त घेति परीक्षा धर्माहे वयम् । कायम हुई । जलके हट जानेसे भागय सह्याद्रिसे नीचे : इति सयें समाप्नोच्य रामेत्युपः प्रचुफ गु ॥४१. उतरे और उन्हें यहां देश देखने में आया । दक्षिण कन्या. भापन्दितं तदा देपो म त्या रामः कृपानिधिः । कुमारोसे उत्तर नासिक ताम्यक तक उसकी सोमा थी। मादुरासीत् पुरोमागे देवर्षिभर्गियः स्वयम् ॥४२ भार्गवने यहां कैकप्तीको भेजा और उन लोगोंके जालोको भागय उयाच । किमर्थ प्रन्दितं विप्रा भवानिमिटिरिह। तोड़ ताड़ कर उन्हें पक्षोपयोत पहना दिया। इस तरह कि दु भयतामा नाशयाम्यचिरावाम ॥४३ भागपने फेयतोंको ब्राह्मण बना लिया। उनको घर इवि तस्प ययः प्रत्या प्रत्यूनुस्ते भयान्विताः । दिया, फि तुम लोगोंके देशमें कमी अकाल या दुर्मिक्ष न किचिदपि संप्राप्स' दुःस' त्यत्पपा रिमो ४ नदी पड़ेगा। यह भूमि शस्यशालिनी होगी। अव ; तल्पितं मयता सत्यमनून पेति गतिः । तुम्हें कोई विपद उपस्थित हो, तब तुम लोग मेरा स्मरण फेरनं तु परीक्षार्थ पन्दित मीसित प्रभो ॥४५ फरना । मैं मा कर तुम लोगोको विपद्को दूर करूंगा। इति से यनः भत्या प्रोपसंरक्लोनमः । यह ५६ कर भार्गय चले गये। किन्तु इन विप्ररूपधारी निर्दन्निव नेत्राम्यागालोकपत भमुरान ॥४६ फैवीको सन्देश दुगा। ये लोग परशुरामकी यातोंको रागार सात सदा रिमान जमदग्निकुमारकः । परीक्षा करनेके लिये जोरोंसे चिल्ला चिला कर रोने लगे। कदन्नमोजिनी सूर्य पेशापधरा मरि ४० तुरन्त हो परशुराम मा गये और उनकी पदमाशी जान भासिदायनीस्याने रसायनीया मविन्यया : कर बड़े मद हुए और यह भगिनाप दिया, कि तू मात्र सत्य मार्गदा रामो महेन्द्र तामे यो १४ से मोटे अन्न खानेवाले, मैले कुचैले फटे पुराने यस्त्र गते तु भागये राने हनतेरस्था विशावकः । पहननेवाले होगे यौर मप्रसिद्ध स्थानमें श्लाघनीय हो । हामस्ताः मुन्नात्ताः शूदायास्तदाभवन ।" रहोंगे। इस तरह अभिशाप दे कर मार्गर यहांसे चले। (माहिला. उत्तराई याय)