माहुली-माहेजी तथा देशा०७४.६ पृ०के मध्य विस्तृत है। यह नगर [ वाधके आक्रमणसे बचाया था। इस कृतज्ञता स्वरूप शाहु प्रधानतः दो भागोंमें विभक्त है। जो भाग कृष्णानदीके | उसे बहुमूल्य वनसे ढके रहते थे तशा जहां वे जाते, वहां पूर्वी किनारे अवस्थित है उसे क्षेत्रमाहुली और जो कुत्ते को पालको पर चढ़ा ले जाते थे। । पश्चिमी किनारे है उसे वस्तिमाहुली कहते हैं। केवल देवकीर्ति के लिये ही इस नगरकी प्रसिद्धि महाराष्ट्रीय सुविख्यात पन्तप्रतिनिधिशके अधिकार-1 थी सो नहीं। चतुर्थ पेशवा माधवरावके गुरु और राज- में रह कर यह नगर उमतिको थरम सीमा तक पहुंच गया। कार्यमें सलाह देनेवाले देवप्रतिम रामशास्त्रो परभोनेका था। धर्मप्राण सचिववंशको देवकीर्तियां आज भी यहां जन्म हुआ था। १८१७-१८ ई०में अन्तिम पेशवा माहुली नगरीको गौरव-रक्षा करती है। कृष्णा-तीरवत्ती वाजोरायके साथ अंगरेजोंके युद्ध-घोषणा करनेसे फछ १० देवमन्दिर हो प्रधानतः उल्लेखनीय हैं। क्षेत्रमाहुलीके पहले सर जान माकम यहां आ कर पेशवासे मिले थे। गिरिघाट पर अवस्थित राधाशङ्कर-मन्दिरका चबूतरा वापु- युद्ध के समय नाना स्थानोंमें पर्यटन कर स्वयं पेशयाने भट्ट गोविन्दमह द्वारा १७८० ईमें बनाया गया। १७४२ | ही यहां कई यार आश्रय लिया था। ई०में धोपतराय पन्तप्रतिनिधि प्रतिष्ठित विश्वेश्वर- | माहूं ( हिं० सी०) एक छोटा कीड़ा जो राई, सरसों, मकी मन्दिर, १७०० ई०में परशुरामनारायण अङ्गल द्वारा आदिकी फसल में उनके डंठलों पर फुलनेके समय या निर्मित रामेश्वर मन्दिर, १७४० ई० में श्रीपतराय पन्त- उसके पहले भएडे दे देता है जिससे फसल नितान्त प्रतिनिधि द्वारा स्थापित सङ्गमस्थलका सङ्गमेश्वर महा- होन हो कर नष्ट हो जाती है। यह काले रंगका परदार देव-मन्दिर और १७३५ ईमें श्रीपत्राय द्वारा स्थापित ! भुनगेके याकारका कीड़ा होता है और जाड़े के दिनों में विश्वेश्वर महादेवका मन्दिर विशेष उल्लेखयोय है। विश्यः। फसल पर लगता है। यदि पानी घरप जाय तो कोडे भ्वर-मन्दिरमे जो बड़ा घण्टा लटक रहा है, उसे १७३६ : नष्ट हो जाते हैं। प्रायः अधिक पदलोके दिनों में जब ईमें वसई जीतने पर महाराष्ट्रगण किसी पुतं गीज गिर्जासे, पानी नहीं वरसता, ये कीड़े अण्डे देते हैं और फसलके उठा लाये थे। मन्दिरको पश्चाद् भागमें रामचन्द्रका डंठलों पर फूलोके आस पास उत्पन्न हो जाते हैं। मन्दिर विद्यमान है। उसका निर्माण १७७२ ई०में सेना- माहेजी-बम्बई प्रदेशके सान्देश जिलान्तर्गत एक नगर। पति विम्बक विश्वनाथ पेटे द्वारा हुआ था। उक्त पांच यह अक्षा० २०४८ उ० तथा देशा० ७५२४०के मन्दिरों के अलावा और भी पांच छोटे छोटे मन्दिर है। मध्य विस्तृत है। जनसंख्या डेढ़ हजारसे ऊपर है। यहां इन सब मन्दिरोंका भी कारकार्य किसी मंशम कम नहीं। १८७१ ई०में म्युनिसपलिटी स्थापित हुई थी, पर है। इन पांच छोटे मन्दिरोंमसे विठोवाका मन्दिर १७३० १६०३ ई०में उठा दी गई। प्रेट इण्डियन पेनिनसुला. ई०में चिनेरवासी ज्योतिपन्त भागवत द्वारा, १७७०, रेलयेका एक स्टेशन होने के कारण नगर दिनों दिन ईगो भैरवदेवका मन्दिर कृष्णम्भट्ट तालका द्वारा, १९५४ । उन्नति कर रहा है। ६०में कृष्णावाईका मन्दिर और १००ई०में महादेवका शहरमें प्रति वर्ष माघसे ले कर चैतमास तक माहेजी मन्दिर कृष्णदीक्षित विपलुन्कर द्वारा स्थापित हुआ। नामक एक रुपक-रमणीके उद्देशसे मेला लगता है । अलावा इसके सतारा रानीका बनाया हुआ एक और खान्देशमें ऐसा बड़ा मेला और कहीं भी देखनेमें नहीं भी शिल्पकार्य-युक्त मन्दिर है। . आता | मेलेके समय गाय, घोड़े आदि विकनेको उक्त मन्दिरोंको छोड़ कर रास्तेके दोनों बगल / आते हैं तथा कृषिप्रदर्शनी होती है। समाधिस्तम्भ दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें सतारा राज- स्थानीय प्रवाद है, कि उक्त रमणा प्रमचषका भव- परिवारका स्मृतिचिह ही अधिक है। राजा शाहु लम्बन कर योगासिद्ध हुई थीं। आजसे प्रायः २७५ ( १७०८-१७४६ ई० ) ने अपने प्यारं कुत्ते को स्मृतिरक्षा. वर्ष पहले वे जनतामें अपना अलौकिक प्रभाव दिखा के लिये यहां एक स्तम्भ खड़ा किया । उस कुत्ते ने उन्हें। गई है। जहां मेला लगता है उसके पासही माजीको 1ol. III. 135
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