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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/७७१

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मीराबाई ६८५ था। ननिहाल जानेका बहाना कर ये छद्मवेशमें मीरा- पण कर क्षमा मांगने लगे। अब स्वच्छन्दविहारिणी विह- . के घर चले। राहमें उन्हें एक साथ मिल गया। हिनो राजप्रासादक प्रमोद प्रकोष्ठ में धन्दी हुई। उसो साथीके साथ धे माराके घर पहुंचे। यहां कुम्मने । मोरा भोगविलामके अनन्त सौन्दर्यसे तृप्तिलाम न देखा, कि मनुष्योंकी अपार भीड़ है। ममी कर सको। क्योंकि, ससुगलको सङ्कीर्ण सीमाके मध्य पिपासित नेत्रोंसे उनके मुखमण्डल-सौन्दर्य तथा सङ्गीत- वह मुक्तप्राणको उदार सगोतधाराको वर्षा न फर के मधुर रसको चूस रहे हैं, बीच । कुसुमालंकृता चन्दन- सकती थी। कुछ दिन बाद यह सख्त बीमार पड़ी । राणाने चर्चिता मीरा चैठ कर हरिगुणका गान करती हैं। कुम्भ / मीराका चित्त-परिवर्तन देख कर इसका कारण पूछा, मोरा स्वयं सुकवि और सहदय थे। मीराकी फलकण्ठध्वनि ने उत्तर दिया, 'महाराज ! मेरा चित्त संसारको किसी सन र चिनापितकी तरह स्तम्भित हो रहे। वस्तुसे मुग्ध होना नहीं चाहता। पिता, माता, भात्मीय गान समाप्त होने पर सोने अपने अपने घरको राह| स्वजन, भोगविलास, वस्त्रालङ्कार किसोसे भी मेरे वित्त- लो। किन्तु कुम्भ कहां जायंगे, क्या करेंगे इसका को निवृत्ति नहीं होती। जय तक आपके पदतलमें बैठो निर्णय न कर सके और यही' किंकर्तव्यविमूढ़ हो खड़े है, तभी तक कुछ मुग्वका अनुभव करती , बादमे कुछ रहे। मीराके पिताने कुम्भके राजोचित आकार प्रकार मी नहीं।" को देख कर उन्हें अनायास हो एक सम्भ्रान्त बंशोद्भव । राणा कविताकी रचना कर सकते थे। वे मोराको 'समझ लिया और उस दिन अपने घर ठहरनेका अनु- काथ्यरचना करने सिखाने लगे। उनका ख्याल था कि रोध किया। इस पर राजाने कहा, "महाशय! भापको ऐसा करनेसे काथ्यको मोहिनी शक्तिसे मोरा मार कन्याकी दिव्यसङ्गोतसुघा पान कर मेरा मन मधुकर होगो । मोराने अपने प्रतिभावलसं पोहे हो दिनांके अंदर 'उदभ्रांत हो गया है। प्रवणलालसाको परितृप्ति विल. कविता रचना अच्छी तरह मीण ली। राणाकी अपेक्षा कुल नहीं होती।' मोराके पिताने दो तीन दिन ठहर ' यह अच्छो कविता करने लगी। इनका उपास्यदेव फर सङ्गीत सुननेका अनुरोध किया और मोराको कुम्भ। रछोड़' नामक बालगोपाल थे इनकी सभी कविताएं को परिचर्या में लगाया। किन्तु राणाको अतृप्तदर्शन | उन्हो भक्तवत्सल श्रीयत्मलाञ्छन नन्दनन्दनको प्रेम लालसा निवृत्त तो क्या होगी, दिनों दिन बढ़ती हो | कहानोसे भरी रहती थी। चली। कई दिन इस प्रकार कुम्भ मोगके घर ठहर इस समय इन्होंने जिम राष्णप्रेममय भक्तिरसात्मक गये। पोडे जय राज कार्यको ओर उनका ध्यान आक- रचना की सष्टि को यह 'गगगोविन्द' नामस राजपून पित हुआ, तब वे वहांसे चल दिये । जाते समय येणव समाजमें परिचित ।। अलावा इसके इतने उन्होंने अपने हाथसे होरेको अंगूठी निकाल कर मीराबाई- जयदेव कृत प्रसिद्ध गीतगोविन्दकी भी एक टोका को दोयी और यात्मविस्मत हो इस प्रकार कहा था- लिखी। "मीरा ! इस स्वर्गसुखका परित्याग कर चित्तोर जाने स्तव स्तुतिगीति कयितास मीराका विमर्प जरा भी की मेरी जरा मी इच्छा नहीं। तुम साफ साफ कही, दूर नहीं हुआ। इस पर कुम्भने फिरसे मोरासे इसका चित्तोरको राजमहिषी होने में क्या तुम्हें कोई आपत्ति ! कारण पूछा। मीरा ने कहा-- है ?" . मीरा उनके चरणों पर गिर पड़ी और क्षमा । महाराणा ! मेरी इच्छा है, कि मैं स्वाधीन मावस मांगते हुए बोली, "हमने अज्ञातवशतः चित्तोरके राणाके मुक्तकण्ठसे अपना सारा समय हरिगुणगानमें व्यतांत प्रति जो यथोचित सम्मान नहीं दिखलाया, इसके लिये करू'। संसारमे सभी लोगोंके लिपे मेरा प्राण तड़प हमारा अपराध क्षमा कीजिये।" • मोरा पिताको जव इस बानका पता लगा, सब ये राणाने गुस्से में आ कर कहा, 'चित्तोरेश्वरोके मुखसे भी बड़े दुःखित हुए और पोछे मोराको उनके हाथ सम-, पेसा यचन निकलना शोभा नहीं देता। मोरा क्षमा ___Tol. III, 172