पृष्ठ:हिन्दुस्थानी शिष्टाचार.djvu/१३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२३
छठा अध्याय

हम लोगो की सामाजिक प्रथाएँ इतनी दूषित हैं कि अछूत जातियाँ किसी प्रकार अपनी उन्नति कर ही नहीं सकती । ये लोग पाठशालाओं में पढ़ने नहीं पाते, किसी के दरवाजे के भीतर पैर नही रख सकते और न रेल आदि सवारियों में स्वतन्त्रता से बेठने के अधिकारी हो सकते हैं। ऐसी अवस्था में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ये लोग अपने आराम के लिए पूर्वजों का धर्म छोडकर दूसरे धर्म में चले जाते हैं। हिन्दुस्थानी लोगों को उचित है कि वे इन जातियो को यथा शक्ति सुधारने का प्रयत्न करें। यद्यपि शहरों में इन लोगो के साथ असभ्य वर्ताव किया जाता है तो भी गाँव के लोग इन्हें अछूत मानकर भी इनसे एक प्रकार का कल्पित पारिवारिक सम्बध मानते हैं। जब गाँव की कोई स्त्री किसी चमार को दादा या भैया कहकर पुकारती है तब क्षण भर के लिए मनुष्य के हृदय की उदारता का चित्र आँखों के सामने आ जाता है।

जहाँ तक हो अछूत जातियों से सहानुभूति का भी व्यवहार किया जावे । यदि उच्च जाति के लोग इनके दुख-सुख में शामिल हो और समय पड़ने पर इन्हें उचित परामर्श देवें तो ऊँची जाति- वालो को कदाचित् कोई नाम न धरेगा और न जाति से निकालेगा। हमे इस विषय में ईसाइयो का अनुकरण करना चाहिये जो इन लोगो के घर जाकर इन्हें पढ़ना लिखना और अपना धर्म सिखाते हैं।

कुछ लोग ऐसा अनुमान करते हैं कि नीच जातियो को उत्तेजन देने से वे आगे उद्दण्डता का व्यवहार करने लगेंगी। इस आशंका को दूर करने का सब से उत्तम उपाय इन लोगो की शिक्षा है जिससे इनका हृदय विस्तृत और बुद्धि उन्नत हो सकती है । यदि हमारे कुछ उत्साही सहधर्मी अछूत जातियों की शिक्षा का भार अपने ऊपर ले लेवें और दूसरो के आक्षेपों का विचार न कर अपना