जाति के थोडे ही लोगो ने ऐसा अनुचित अनुकरण करना आरम्भ
किया हो तो आरम्भ ही में उसका विरोध करना आवश्यक है। यदि
पुराने रहन-सहन मे समय के फेर से कठिनाइयों उपस्थित होने
लगें, तो उसमे आवश्यक परिवर्तन भले ही कर लिया जाय, पर
पुराने रीति रिवाज में आमूल परिवर्तन करना उचित नहीं है।
विदेशी चाल-ढाल के अनुकरण से एक तो लोग अपनी प्राचीनता
का गौरव नष्ट करते हैं और दूसरे अपनी स्वाधीनता के भाव भी
एक प्रकार से खो देते हैं। इसके सिवा हम जिन लोगेा की चाल-
ढाल का अनुकरण करते हैं वे भी हम लोगो को विशेष आदर
की दृष्टि से नहीं देखते और प्राय चापलूस समझते हैं।
एक विलायत प्रवासी हिन्दुस्थानी सज्जन ने लिखा है कि जब विदेशी पहिनावा पहिनकर किसी महाशय से मिलने जाता था तब वे मुझसे अधिक स्नेह-भाव से मिलते थे। विदेशी पोशाक का पूरा अनुकरण करना कठिन है, इसलिये इसकी छोटी सी भूल भी वड़ उपहास का कारण होती है। पूरी विलायती पोशाक पहिनने पर भी जो लोग कम से कम सिर पर टोपी, साफा या पगडी लगाते हैं वे टोपवालो की अपेक्षा कुछ अधिक गौरववान समझे जाते है । इन सब कारणो पर विचार करने से यही तात्पर्य निकलता है कि मनुष्य को अपनी चाल-ढाल में भी अपनापन (आत्म गौरव) रखना चाहिये।
कई हिन्दुस्थानी लोग मुसलमानो की तरह ढीला पायजामा पहिनते हैं अथवा कुलाह पर साफा बांधते हैं और इन पोशाको को
गौरव अथवा नवीनता का कारण समझते हैं, पर वे यह नही
समझते कि उनको छोड़कर दूसरे लोग उहें क्या समझते हैं।
क्या कभी शिक्षित मुसलमान धोती पहनते हैं ? अाजकल,
अोर प्राचीन समय से भी, अलग अलग जाति को अलग अलग पोशाक है जिससे