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पृष्ठ:हृदयहारिणी.djvu/२२

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को चढ़ा दिया।

दूसरे दिन फिर बीरेन्द्र कुसुम के घर गए और कमलादेवी को उन्होंने 'मां' कहकर प्रणाम किया। उसी दिन से वे बराबर कमलादेवी को 'मां' कहकर पुकारते और वैसी ही भक्ति भी दिखलाते, जैसी एक सपूत अपनी माता पर प्रगट करता है। बीरेन्द्र के बर्ताव ने सरल स्वभाववाली कमलादेवी के हृदय में एक नए आनन्द का सोता जारी कर दिया और वह भी बीरेन्द्र पर पुत्र के समान स्नेह करने लगी। फिर तो बीरेन्द्र बराबर कमलादेवी के यहां आने जाने लगे। वे बहुत अच्छे पण्डित थे और कमलादेवी भी कम न थीं, सो उन दोनों ने मिलकर कुसुम को पढ़ाना लिखाना प्रारम्भ किया और सूई के काम को भी सिखलाया। कुसम की बुद्धि इतनी तीखी थी कि दूसरी लड़कियां जितना एक महीने में सीखतीं, वह एक दिन में सीखने लगी और दोही महीने की शिक्षा में वह चिट्ठी पत्री लिखने और कुछ सीने भी लग गई थी।

यद्यपि अब कुसुम का, घर के बाहर निकलना बिल्कुल बंद कर दिया गया था और बीरेन्द्र की सहायता से कमलादेवी के घर से दरिद्रता ने भी एक प्रकार से अपने कूच करने की पूरी पूरी तैयारी करली थी, परन्तु कमलादेवी बीरेन्द्र की सहायता लेने में राजी नहीं होती और बराबर इसी बात का हठ पकड़ कर बड़ा तर्क बितर्क करती थीं; इसलिये जब बीरेन्द्र ने देखा कि,-'यह यों मेरी सहायता कभी न लेंगी, तो सोचकर उन्होंने एक ढंग निकाला और एक दिन अकेले में कमलादेवी से कहा,-

"मां! मैं क्षत्री हूँ और रंगपुर के महाराज रणधीरसिंह के यहां सेना में काम करता हूं। मेरे महाराज से किसी सिद्ध महात्मा ने कहा है कि;- यदि तुम्हारी सेना के बीर सैनिक कुमारी कन्या के हाथ की सी हुई टोपी पहिरें तो संग्राम में कभी न हारेंगे और यवन संहार करके पवित्र भारतभूमि का उद्धार कर सकैंगे,' इस लिये महाराज की आज्ञा से एक लाख टोपियां पाँच बरस में तैयार कराने का भार मैंने अपने ऊपर लिया है और सैकड़ों कुमारी कन्याओं को इस काम में लगाया है। यदि आपकी आज्ञा से कुसुम भी इस काम को करै तो इसके हाथ की सी हुई टोपियां सेना के प्रधान प्रधान लोग पहिरेंगे। टोपी का नमूना और कपड़ा राजदरबार से