दिया जायगा और प्रत्येक टोपी के लिये पांच रुपए सिलाई के देने का नियम भी उन्हीं सिद्ध महात्मा के आज्ञानुसार किया गया है। मैं जहां तक समझता हूँ, इसमें आपको कोई उज़ न होगा और कृपा कर इस काम में हाथ लगाने के लिये कुसुम को आप अवश्य आज्ञा देंगी; क्योंकि इसमें तो, मां! कोई बात अनुचित नहीं है। आपकी थोडीसी दया होने से एक राजा का राज्य निष्कण्टक हो जायगा और साथही भारतभूमि का भी उद्धार होगा; यह क्या कुछ थोड़े पुण्य की बात है?"
बीरेन्द्र की बातें सुनकर कमलादेवी की आंखों से आंसू बहने लगा और उन्होंने एक ठंढी सांस भर कर कहा,-
"बेटा, बीरेन्द्र! यदि भगवान् की ऐसीही इच्छा है तो यही सही। कुसुम तुम्हारी ही है, इसलिये उससे तुम जो चाहो सो काम ले सकते हो।"
निदान, फिर तो बीरेन्द्र ने टोपी का नमूना, कपडा और सीने पोहने के सब सामान कुसुम को देकर उससे टोपी सिलवाना प्रारम्भ किया। कुसुम भी जी जान से इस काम में लग गई और बड़े परिश्रम के साथ महीने में बीस टोपियां तैयार करने लगी; इससे सौ रुपए महीने उसे बीरेन्द्र देने लगे। उनकी सहायता करने की मनोकामना भी पूरी हुई और कमलादेवी के घर से दरिद्रता का भी पौरा गया। इस प्रकार लगभग एक बरस के बीत गया। इतने दिनों में बीरेन्द्र की शिक्षा से कुसुम "आदर्शरमणी" बन गई और उसका संदूक भी रुपए पैसों से भर गया; किन्तु इतने पर भी कमला का मानसिक कष्ट दूर नहीं हुआ था और कुसुम के हृदय में एक विचित्र प्रकार के सोच ने अपना घर किया था। यद्यपि इतना सब हुआ, किन्तु दुर्भाग्य ने इतने से सुख पर भी बज घहरा दिया और एकाएक बीरेन्द्र, बिना कमला या कुसुम से कुछ कहे सुने गायब हो गए। कुसुम, जो वीरेन्द्र को जी जान से चाहने लग गई थी, उनके देखे बिना उसका प्राण तड़पने, जी घुटने और हृदय फटने लगा; किन्तु,–'आज नहीं आए, तो कल वे अवश्यही आवेंगे' इस आशा से उस बालिका ने अपने को आप कुछ कुछ धीरज धराया, पर उसके धीरज ने उसे कुछ भी भरोसा न दिया और दूसरे दिन भी बीरेन्द्र न आए। इसी प्रकार वह