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परिच्छेद)
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आदर्शरमणी।


ग्यारहवां परिच्छेद
नखसिख

"दृष्ट्या खञ्जनचातुरी मुखरुचा सौधाधरी माधुरी,

वाचा किञ्च सुधासमुद्रलहरीलावण्यमातन्यते।"


अपूर्व और विशुद्ध प्रेम स्वर्गीय सम्पत्ति है और वही इस जड़ जगत का एकमात्र जीवन या आधार है। इसकी महिमा का पार नहीं है, इसके रूप असंख्य हैं, इसके नाम अनन्त हैं और इसके गुण का भी अन्त नहीं है। इसी प्रेम के चित्र उतारने में आदि कवि वाल्मीकि ने रामायण बनाई, कविकुलगुरु कालिदास ने रघुवंश, कुमारसम्भव, मेघदूत और शकुन्तला की रचना की, भवभूति ने मालतीमाधव और भारवि ने किरातार्जुनीय को लिखडाला, किन्तु उस प्रणय का सर्वाङ्ग-सुन्दर चित्र किसीने क्या उतार डाला!!! यदि हां, तब तो अब दूसरे चित्र के उतारने के लिये परिश्रम करना झख मारना है; और यदि नहीं, तो फिर उस चित्र के उतारने की इच्छा करना भी मूढ़ता से खाली नहीं है। सोचिए तो पाठक! जब कि सरस्वती-वरगर्वित कविगण प्रेस के सर्वाङ्गसुन्दर चित्र अंकित करने में अपारग रहे, तो फिर हम जैसे मतिहीन जड़भरत इस विषय में कितना साहस कर सकते हैं! और भी देखिए,-कि जब प्रेम ही के चित्र उतारने में इतनी वाधा है तो फिर उस वस्तु का चित्र क्योंकर उतारा जा सकता है, जो प्रेमाधार या प्रेम का निदान है!!!

प्रयोजन यह कि उपन्यासों में नायक-नायिका के रूप का वर्णन करना भी एक आवश्यक बात मानी गई है, इसीके जंजाल में फंसकर आज हम अपनी सारी चौकड़ी भूल गए हैं और हैरान हैं कि इस आपदा से क्योंकर अपने तईं बचावें!!!

बात यह है कि आज षोड़शी देवी कुसुमकुमारी की रूपराशि का वर्णन हम किया चाहते हैं, और यही हमारे लिये घोर संकट का मानो सामना करना है!!! अब यदि पाठक! आप कवि हैं, तो बतलाइए कि हम किस भांति अद्वितीय सुन्दरी कुसुमकुमारी का