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६२
(बारहवां
हृदयहारिणी।


कुसुमकुमारी ने लवंगलता को ठुढ्ढी पकड़कर कहा,-"क्यों, बीबी! तुम तो मुझे अभीसे इतना प्यार करने लग गई हो कि मानों हमारा-तुम्हारा जनम से साथ रहा हो!"

लवंगलता ने कुसुम के गले में बाहें डाल दी और मुस्कुराकर कहा,-"यह बात तुमने कैसे जानी, भाभी!"

इतना सुनकर कुसुम खिलखिलाकर हंस पड़ी और उसने अपने दाहिने हाथ की नन्हीं नन्हीं तीन अंगुलियों से लवंगलता के गाल को छूकर कहा,-" वाह, क्या कहना है! भला,मैं तुम्हारी भाभी कबसे हुई!"

लवंगलता,-"जबसे तुमने मेरे भैया के चित्त को चुराया! किन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि, उलटा चोर कोतवालै डांड़ै!"

कुसुम,-"वाह,भई! तुम तो खूब बोलना जानती हो, पर यह तो बतलाओ कि तुमने इतनी बात बनानी किससे सीखी है! क्या तुम उसका नाम बतलाओगी, जिसने तुम्हें इतनी चतुराई सिखाई है!"

लवंगलता,-"पर, भई! भाभी के कहने से तुम इतना चिढ़ती क्यों हो? मान लो कि अभी लोकाचार का होना या फेरे का पड़ना भर बाक़ी रहगया है, तो इससे क्या! जब कि चार दिन बीते वह बात होहीगी, तो फिर उसके लिये इतना घबराती क्यों हो!"

कुसुम,-"बहुत खासी! सवाल कुछ और जवाब कुछ और!!! तुम्हारे इस कहने से तो, बीबी! मुझे यही जान पड़ता है कि तुम मेरे सिर नहाकर अपने जी का उबाल उगल रही हो!"

लवंग०,-"तुम यह क्या कहने लगी!"

कुसुम,-"यही कि तुम्हारे लिये भी तो अभी उतनी ही देर है, जितनी कि तुम मेरे लिये बतला रही हो! किन्तु यदि तुम्हें चार दिन की भी समाई न हो तो मैं आज ही तुम्हारे फेरे पड़ने का प्रबन्ध करदूं!"

लवंग०,-"वाह! यह तो तुमने अपने जी का हाल खूब ही कहा! मैं आज ही भैया से कह-सुन-कर तुम्हारी घबराहट के दूर करने का उपाय करूंगी!"

कुसुम,-"और मैं भी बबुआ मदनमोहन से इस विषय में बातचीत करूंगी और उनसे कहूंगी कि,-'बबुआ! आप एक कामिनी को इतना क्यों तरसा रहे हैं? क्यों तब तो ठीक होगान?"