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परिच्छेद)
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आदर्शरमणी।


लवंग०,-"वाह, यह तो तुमने अच्छा बेसुरा तान गाया! भला; उनसे क्या प्रयोजन है!”

कुसुम,-"अक्ख़ाह! यह मैंने अब जाना कि बबुआ मदनमोहन के अलावे तुम किसी और से भी कुछ मतलब रखती हो!!!"

लवंग,०-" आइने में जैसा मुंह देखो, वैसा ही दिखलाई देता है!"

कुसुम,-"ठीक है, यह मैंने अब समझा कि मैं आइना भी हूं! तब तो तुमने अपनी सूरत जैसी की तैसी देखली!"

लवंग०,-"जाओ, भई! तुम तो ऐसी बातें करने लगती हो कि जिनका मेरे पास कुछ जवाब ही नहीं है!"

कुसुम,-"तो अपने उस्तादजी से सीखकर जवाब देना!"

लवंग०,-"वाह! मेरा उस्ताद कौन है?"

"उसे मैं अभी यहीं बुलवाए लेती हूं!” यों कहकर कुसुम ने घंटी बजाकर एक दासी को बुलाया और उसे हुक्म़ दिया कि,- "तू अभी जाकर बबुआ मदनमोहन को यहां बुला ला!"

इतना सुनते ही लवंगलता ने कुसुम के पैर थाम्ह लिए और गिड़गिड़ाकर कहा,-"भाभी! मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं दयाकर तुम मुझे इतना न सताओ!”

लवंगलता की गिड़गिड़ाहट देख उसे कुसुम ने अपने गले लगा लिया और ठीक उसी समय कमरे में पैर रखते-रखते नरेन्द्र ने हंसकर कहा,-"वाह आज तो खूब घुट-घुट-कर बातें होरही हैं! तुझे किसने सताया है,लवंग!"

नरेन्द्र को आते देख कुसुमकुमारी और लवंगलता उठ खड़ी हुई और दासी, जो अभी तक वहीं खड़ी थी मुस्कुराती हुई तुरंत कमरे के बाहर चली गई; परन्तु मदनमोहन को उसने इसलिये नहीं बुलाया कि कुसुम ने इशारे से उसे मना कर दिया था।

निदान, कुसुम ने नरेन्द्र का हाथ थाम कर उन्हें गद्दी पर ला बैठाया और गद्दी से कुछ दूर पर लवंगलता का हाथ पकड़े हुई स्वयं भी बैठ गई।

उसने नरेन्द्र की ओर देख मुस्कुराकर कहा,-"अभी जो तुमने बीबीरानी से इनके सताए जाने का हाल पूछा था,उसके विषय में यदि कहो तो मैं कुछ सुनाऊं!"