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(बारहवां
हृदयहारिणी।


कुसुम के इस ढंग को देख लवंगलता बहुत ही लज्जित हुई और उसने बहुतेरा चाहा कि,–'किसी तरह यहांसे भागे,'-पर कुसुम इतने ज़ोर से उसका हाथ पकड़े हुई थी कि वह किसी तरह भी अपने हाथ को न छुड़ा सकी।

नरेन्द्र ने कहा,-"हां,हां! कहो, इसे किसने क्या सताया है!"

कुसुम,-"तुमने सताया है!"

नरेन्द्र,-(आश्चर्य से) "क्या, मैंने!"

कुसुम,-"हां, हां! तुम्हींने!"

नरेन्द्र,-" कैसे!"

कुसुम,-"कहते हो कि कैसे! भला, तुम्हें इतना भी ज्ञान नहीं है, कि तुम इनके ब्याह में इतनी ढिलाई कर रहे हो? देखते नहीं कि बिचारी दिन पर दिन, मारे सोच फिकर के, फूल की तरह कम्हलाई जाती हैं! क्या तुम्हें इन पर ज़रा भी दया नहीं आती! क्या, इन्हें तुम सदा क्वारी ही रक्खोगे! देखो तो सही, बिचारी ब्याह के लिये कितना तड़प रही हैं !”

इतना सुनते ही लवंग बड़े झटके से अपना हाथ छुड़ाकर वहां से भागी!

नरेन्द्र ने कुसुम के परिहास पर हँस दिया और कहा,-"मुझे सबका खयाल है, किन्तु बात यह है कि पहिले तुम्हारा ब्याह करादूं, तब लवंग का करूं!”

कुसुम ने कहा,-" हां; हां! अच्छा तो है! मेरा ब्याह मदनमोहन से करा दो और तुम लवंगलता से कर लो!”

नरेन्द्र, “वाह! यह क्या कहने लगीं!"

कुसुम,-"और क्या! जब भरपूर जवाब मिला, तब कैसा चिहके! अभी तुमने क्या कहा था, ज़रा अपने कहने के ढंग पर बिचार तो करो! आज तुमने फिर कल की भांति 'रुक्मिणी-परिहास' की पोथी खोली!"

नरेन्द्र ने मुस्कुराकर कहा,-"क्यों, प्यारी! तुमने इतना क्रोध कभी और भी किसीपर किया था!”

इतना सुनकर कुसुम ने हंस दिया और कहा,-"किस पर करती! क्यों कि तुम सा अपराधी मेरे भाग्यों ने पाया ही कब था!!!"