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परिच्छेद)
८१
आदर्शरमणी।



प्रसाद।

"प्रसादस्तु प्रसन्नता "

निदान, चंपा के साथ वे दोनों राजनन्दिनी राजसदन की सबसे ऊंची छतपर चढ़ गईं, किन्तु रात्रि के कारण वहांसे अच्छी तरह कुछ दिखलाई न दिया, इसलिये लवंगलता के साथ कुसुम नीचे उतर आई। फिर कुसुमकुमारी तो तेज़ी के साथ कमरे में घुस गई और लवगङलता दालान में रह गई; इतने ही में नरेन्द्रसिंह ने वहां पहुंचकर उसे आनन्द- गद्गद् कर दिया!

नरेन्द्र को देखते ही लवङ्गलता मारे खुशी के उनके पैरों पर गिरने लगी, पर उन्होंने उसे बीच ही में रोककर उसके मस्तक को हदय से लगा लिया और उसे सूंघा।

लवङ्गलता ने बड़ी प्रसन्नता से पूछा,-"भैया! आप राज़ी खुशी से रहे न?”

नरेन्द्र,-"हां, बहिन! मैं बड़े आनन्द से रहा और जगदीश्वर की दया तथा बड़ों के पुण्य-प्रताप से कुशल पूर्वक घर लौट आया।"

लवङ्ग,-"आहा, यह बड़ी खुशी की बात हुई कि आप राज़ी खशी आगए!"

इसके बाद नरेन्द्र ने पूछा,-"कुसुम कहां है?"

लवङ्ग,-"वह अभी इसी कमरे में गई हैं।"

यह सुन नरेन्द्र ने कमरे में पैर रक्खा और लवङ्गलता कमरे के बाहर ही इस लिए रह गई कि जिसमें बिछुरे हुए प्रेमी आपस में जी खोल कर मिल सकैं।

निदान, ज्यों ही नरेन्द्र कमरे में पहुंचे कि कुसुम कुमारी दौड़ कर उनके पैरों पर गिर पड़ी। यह देखते ही उन्होंने बड़े प्रेम से उसे उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। उस समय उन दोनों की आंखों से प्रेमाश्र बह चले थे।

कसुम ने नरेन्द्र की और नरेन्द्र ने कुसुम की आंखें पोछ दी