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परिच्छेद)
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आदर्शरमणी।


कुसुम,-"नहीं, तुम पहिले भोजन करो, फिर मैं भी तुम्हारी जूठन पाकर अपने को कृतार्थ करूंगी।"

नरेन्द्र,-"पर आज तो मैं बिना तुम्हे पहिले खिलाए कभी खाऊंगा ही नहीं।”

कुसुम,-"नहीं,प्यारे! इतना हठ न करो और मुझे कांटों में न घसीटो।"

नरेन्द्र,-"हाय! तुम्हें मुझपर ज़रा दया नहीं आती! राम,राम मारे भूख के मेरी आत्मा विकल होरही है और तुम कुछ भी मेरा कहना नहीं मानती!"

उस समय लवङ्ग वहांसे हट गई थी, बिल्कुल निराला था और आपस में खुलकर बात चीत करने का अच्छा मौका था, इसलिये कुसुम ने हंसकर कहा,-"तुम मानोगे नहीं, अच्छा, पहिले गस्सा तो उठाओ, मैं भी खाती हूं।"

नरेन्द्र,-"नहीं, आज तो ऐसा हो हीगा नहीं, आज पहिले तुम्हीं को खाना पड़ेगा।"

कुसुम,-"प्यारे! तुम्हें मेरी कसम! इतना आग्रह न करो, बस, एक कौर खाकर अपनी जूठन मुझे दो। मैं भी तुम्हारे सामने ही खाती हूं।"

निदान, ऐसा ही हुआ और कुसुम ने नरेन्द्र की प्रसादी पाकर उनके साथ बैठकर दूसरो थाली में ब्यालू की; मानो व्रत का सच्चा उद्यापन होगया!!!

नरेन्द्र ने कहा,-"प्यारी! दुराचारी सिराजुद्दौला का पतन हुआ और मीरजाफ़र तथा लाटक्लाइव ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तुम्हारी माता और उनकी मामी की सारी स्थावर संपत्ति तुम्हें लौटा दी और दो लाख रुपए नकद तुम्हारी भेंट किए।"

कुसुम,-"मेरी सच्ची सम्पत्ति तो, प्यारे! तुम हो, इसलिये स्थावर सम्पत्ति जो कछ मुझे मिली है, उसे मैं तुम्हारी भेंट करती हूँ, और नकद जो दो लाख रुपए मिले हैं, उन्हें अपनी ननद के कन्या दान में अभी संकल्प कर देती हूं!"

ग्रंथकर्ता,-"धन्य, उन्नतहदये! हृदयहारिणी! तू धन्य है!"

निदान, वह दिन बड़े आनन्द से व्यतीत हुआ! ईश्वर करे, ऐसा ही सख संसार में सभी कोई पावें।