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(अठारहवां
हृदयहारिणी।


अठारहवां परिच्छेद.

विवाह,

"विवाहान्न पर सौख्यम् ।”

पलासी की लड़ाई से निपट कर नरेन्द्रसिंह ने पहिले बड़े धूमधाम से पिता का वार्षिक श्राद्ध किया और यह श्राद्ध वङ्गदेश में ऐसा हुआ कि जिसकी गाथा आज भी स्त्रियां ग्राम्य गीतों में गाया करती हैं! इसके पश्चात लवङ्गलता का विवाह हुआ, दिनाजपुर से बड़े धूमधाम से बारात आई, और नरेन्द्र सिंह ने मदनमोहन के कर में स्वयं कन्यासम्प्रदान किया।

जिस समय दुलह-बहू-दोनों कोहबर में गए, उस समय कुसुम की विचित्र छेड़छाड़ ने खूब ही रंग जमाया!

अंत में उसने मुस्कुराकर मदनमोहन से कहा,-"बबुआजी! लोग बेटी दामाद को जहांतक बनता है, देते ही हैं, किन्तु मैं तुमसे इस अवसर पर कुछ मांगती हूँ! क्या मैं यह आशा कर सकती हूं कि तुम मुझे इस समय एक अदनी सी चीज़ के देने में आनाकानी न करोगे!"

मदन०,-[लज्जित हो] "आप यह क्या कह रही हैं!"

कुसुम,-"तो क्या तुम नाहीं करते हो!"

मदन०,-"जी नहीं, आप मुझे क्या आज्ञा करती हैं!"

कुसुम,-"तो पहिले तुम यह प्रतिज्ञा करो कि जो कुछ मैं चाहूंगी, उसे तुम अवश्य पूरा करोगे!"

मदन०,-"मैं शपथपूर्वक कहता हूं कि आप जो आज्ञा करेंगी, प्राण रहते उसे कभी न टालूंगा।"

कुसुम,-"शाबाश! चिरंजीवी होवो! अच्छा तो सुनो-मैं यही तुमसे चाहती हूं कि तुम दोनों बराबर साल में दो चार महीने यहां आकर रहा करना, जिसमें मेरा हिया ठंढा हो! सो भी इस तरह कि तीन चार महीने पीछे आए और महीना बीस दिन रह गए।