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परिच्छेद)
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आदर्शरमणी।


मदन०,-"आपकी इस आज्ञा को मैं बड़े सन्मान के साथ सिर चढ़ाता हूं।"

कुसुम,-"ईश्वर करे, यह जोड़ी जुग जुग जीए; दूधन नहाय, पूतन फले!"

इसके पश्चात लवंगलता रीतभांत पूरी करने के लिये ससुरार गई और पंद्रह दिन के भीतर ही मदनमोहन के साथ उसे नरेन्द्र ने माधवसिंह को भेजकर बुला लिया।

आज कुसुम का ब्याह है! श्रीकृष्णनगर के प्रतापशाली महाराज धनेश्वरसिंह की एकमात्र पुत्री कुसुम का आज शुभविवाह है। जिसने राजकन्या होकर भी दुर्दिन के पाले पड़, बाल्यजीवन के बहुत से दिन बड़े दुःख के साथ व्यतीत किए थे, उसी चिरदुःखिनी राजकुमारी कसुमकमारी का आज रंगपुर के महाराज नरेन्द्रसिंह के साथ परिणय है! आज चंपा के आनंद का वारापार नहीं है, क्योंकि उसने आज कसुम की मां और सास-दोनों का आसन ग्रहण किया हैऔर उसके लिये ऐसा क्यों न होता, जबकि उसने घोर दुर्दिन के समय में भी कुसुम या उसकी माता को नहीं छोड़ा था और जहांतक चाहिए, हाड़ मास गलाकर भरपूर उन दोनों की सेवा भी की थी; किन्तु इस आनन्द के समय भी उसकी आखें रह रह कर भर आती थीं; और उनका भरना केवल इसीलिये था कि, 'आज कुसुम के इस अलौकिक सुख के देखने के लिये उसकी माता कमलादेवी जीवित न थीं।' कुसुम भी रह रह कर आज मां के न रहने से रो उठती थी, पर चंपा और लवङ्गलता उसके जी को तरह तरह की बातों में भरमाकर उसे उदास होने से रोकने का भरपूर प्रयत्न करती थीं।

शुभ मुहूर्त में नरेन्द्रसिंह ने शास्त्रानुसार कुसुम का पाणिग्रहण किया और मंत्री माधवसिंह ने कन्या सम्प्रदान किया। यद्यपि कुसुम की पैतृक सम्पत्ति उसे मिल चुकी थी, यहांतक कि उसकी माता कीमामी 'बिमला' की जागीर भी उसे मिल गईथी, इसलिये नरेन्द्र ने उसे बहुत समझाया कि,-'वह कृष्णनगर अपने पिता के घर, अथवा मुर्शिदाबाद अपनी नानी के घर पहिले से चली जाय और बारात वहीं पर जाय, तथा ब्याह हो।' किन्तु माता के न रहने से कुसुम ने कहीं का जाना स्वीकार न किया, इसलिये घर