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(उन्नीसवा
हृदयहारिणी।


उन्नीसवां परिच्छेद
सोहाग-रात!!!


"किमपि किमपि मन्दं मन्दमासत्तियोगा-
दविरलितकपोलं जल्पतोरक्रमेण।
अशिथिलपरिरम्भाव्यापृतैकैकदोष्णी-
रविदितगतयामा रात्रिरेवं व्यरंसीत्॥"

निदान, अब कुसुम को सोहागरात का हाल लिखकर हम इस उपन्यास को समाप्त करते हैं।

हरे कमरे में, जिसमें बिल्कुल हरे रंग के ही शीशे लगे हुए थे और फर्श भी हरी मखमल का पिछा हुआ था, पन्ने के पाये का छपरखट बिछा हुआ था। हरे फ़ानूस में दो एक मोमबत्तियां जल रही थीं, जिनसे उस आलीशान कमरे में रौशनी का उंढा और हलका उजाला फैला हुआ था। पलंग पर एक ओर स्त्रियों की स्वाभाविक लज्जा, संकोच और रुकावट के भार से झुकी हुई कुसुम घूंघट काढ़े और बदन समेटे हुई बैठी थी और उत्कंठा, लालसा और उमंग के उभाड़ से नरेन्द्र उसकी लज्जा दूर करने और घूंघटघटा में छिपे हुए चांद को बाहर लाने के उद्योग में जी जान से लगे हुए थे, पर कृतकार्य नहीं होते थे। जो कुसुम विवाह के पहिले नरेन्द्र से बेधड़क बातें करती, हास-परिहास करती गले से लपट जाती और गालों को चूम लिया करती थी, यही इस समय नरेन्द्र के हज़ार मनाने और बातें बनाने पर भी मुह से घोलना तो दूर रहा, सिर भी नहीं हिलाती थीं। यद्यपि दोनों ही के हृदय में अनगिनतिन उमंगें भरी हुई थी, पर उस समय दोनों की। मानसिक गति भिन्न क्यों थी? सुनिए,—स्त्रियों की प्राकृतिक या स्वाभाविक लज्जा, संकोच, या रुकाघट के कारण। किन्तु नरेन्द्र सिंह के चित्त में इस बात पर भरोसा था कि यह स्वाभाविक लज्जा, जो नवसमागम के समय अपना अपूर्व कौतुक दिखलाया हो करती है, कुछ घंटों में अवश्य ही दूर हो जायगी, क्योंकि उन्हें