किसी कवि के इस बचन पर पूरा भरोसा था और वे उस समय बार बार इसी कविता की आवृत्ति भी करने लगे थे, जिसे सुन कुमुम मन ही मन प्रसन्न होती और लज्जा के पैरों पड़ती, पर
वह (लज्जा) उस समय नई दुहिन का एकाएक साथ छोड़ना नहीं चाहती थी!
सुनिए, प्रिय पाठक! नरेन्द्र यही कविता बार बार पढ़ते थे,-"यह शर्मगी आंख मेरे दिल से, हया से मुंह पर नकाब कब तक? रहेगी दूल्हा से रोज़ सोहबत, करेगी दुल्हिन हिजाब कब तक?"
निदान, इसके बाद फिर क्या हुआ और कमोंकार, नरेन्द्र ने मनां-मुनूं कर कुसुम को कली खिलाई इसके लिखने का अधिकार हमकी नहीं है। हां! उस समय का वृत्तान्त हम अवश्य लिखेंगे, जब प्रातःकाल नरेन्द्रसिंह की आंख खुली और उन्होंने कुसुम को अपना पैर दबाते हुए देखा! चार आंखें होते ही कुसुम ने सिर नीचा कर लिया और लड़खड़ाती हुई जबान से मुस्कुराकर यों कहा-
प्राणनाथ! आप मेरा सुप्रभात है।"
नरेन्द्रसिंह ने यह सुनते ही उसे बँचकर गले से लगा लिया और कहा,-"क्या, केवल तुम्हारा ही! नहीं, प्यारो! तुम्हारे ही प्रताप से तो मेरी आंखों ने भी इस सुप्रभात के दर्शन पाए!"[१]
कुसुम,-"ईश्वर करे, सदा ऐसाही हो!"
इतिश्री
- ↑ इस उपन्यास को पढ़कर यदि पाठक प्रसन्न हुए हों तो उन्हें चाहिए कि इसके उपसंहार भाग “लवगलता" उपन्यास को इस कार्यालय से मंगाकर पढ़ें।