पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/११८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
 

सोलहवाँ परिच्छेद

रात को आठ बजे सुंदरलाल महाशय ने अत्यंत करुणा- पूर्ण स्वर से शारदा को समझा-बुझाकर कुछ खाने को विवश किया। तब सबको सरला की याद आई। शारदा बोली― "सरला कहाँ है?"

"उस तुम्हीं बुलाओ। वह अपने कमरे में द्वार बंद किए पड़ी है। वैसा घटना-चक्र मिला है। सुरेश बाबू भूदेव के बिना भोजन भी नहीं करते थे। उन्हीं की स्त्री से उन्होंने यह व्यवहार किया। अपनी विवाहिता का कुछ ध्यान नहीं किया। जन्म से भूदेव मेरे साथ खेला है, पर उसकी आत्मा ऐसी है, यह तो कभी ख़याल भी नहीं हुआ था।" यह कहते- कहते सुंदरलाल के होठ फड़कने लगे; पर तुरंत ही आँखों में पानी भरकर उन्होंने कहा―"बहन, मैंने ही तुम्हारे सुख- सौभाग्य में लात मारी है। व्याह से प्रथम ही मैं जान गया था कि वह इस विवाह से राज़ी नहीं है। तभी मुझे पिताजी से सब कुछ कह देना चाहिए था।"

शारदा रो रही थी। रह-रहकर उसके मन में आता था कि भाई का मुँह बंद कर दूँ। अंत में जैसे-तैसे अपने विचार बटोरकर उसने कहा―"अब कितनी बार इस