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हृदय की परख

दुःख को बड़े वेग से रोककर वह बोली―"तू सर्वथा निर्दोष है। प्यारी सरला! इस लोक में ऐसी आत्मा कहाँ मिलती है? फिर तेरी मा तो मैं यहीं बैठी हूँ। तूने कहा था न कि तुम मेरी मा हो?"

सरला चुप रही। इन कल्पित वाक्यों से उसे ढाढ़स न हुआ। कुछ देर में वह बोली―"वह भी चले गए। जाने कहाँ चले गए? मैं उन्हें ही पिता मानकर माता के अभाव में उनकी सेवा करती।"

इस बात से शारदा का जी छटपटा उठा। उन्होंने तनिक उद्वेग से कहा―"क्यों बेटा! अपने पिता पर इतना वैराग्य क्यों? तुम्हारी माता ने उन्हें भुलाकर दूसरा ब्याह करके सुख भोगा, पर तुम्हारा महात्मा पिता तो केवल उसी के लिये सब कुछ त्यागकर मिट्टी में मिल गया है। तुम्हारी पवित्रात्मा तुम्हारी कुलटा माता को तिरस्कार कर सकती है, पर तुम्हारा महात्मा पिता तो पवित्रता और स्वर्गीय प्रेम का आदर्श है।"

अपनी मृत माता की निंदा सुनकर उसे रोष आ गया। पर ज्यों ही कोई कठोर बात कहने को उसने मुँह उठाया, तो देखती क्या है कि शारदा का मुख तेज से व्याप्त हो गया है―उस पर नज़र नहीं ठहरती। फिर भी उसने तनिक विमन से कहा―"देवी, जो मर गया, अब उसे कोसने से क्या है? अपनी माता की हृदय-हीनता पर मुझे क्रोध