पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१२१

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सोलहवाँ परिच्छेद

होना स्वाभाविक ही है, पर वह तो आपकी प्रिय सहेली थीं। उनकी मृत आत्मा पर आपकी ऐसी अनादर-बुद्धि क्यों? अंत में तो वह मेरी पूज्या माता ही थीं। मैं ही आभागिनी हूँ। एक बार वह मुझे मेरो झोपड़ी में जाकर गोद में बैठाती थीं, तब उनका तिरस्कार किया, और उस दिन भी उन्हें मर्माहत किया। मेरे अभाग का भी कुछ ठिकाना है! पहले तो माता की गोद नसीब ही नहीं हुई, फिर प्राप्त भी हुई, तो भाग्य ने ढकेलकर धूल में डाल दिया! पिता का तिरस्कार क्यों करती? पर उनका पता-ठिकाना कहाँ है? काका लोकनाथ कहा करते थे कि १५ वर्षों तक भिन्न-भिन्न स्थानों से उनके भेजे हुए रुपए आते रहे थे, फिर वह भी बंद हो गए। क्या जाने, वह मरे हैं या जीते।"

आख़ीरी बात सरला के मुख से निकली ही थी कि शारदा ने डपटकर कहा―"चुप रह सरला! छोटा मुँह बड़ी बात? अपने देवता पिता के लिये ऐसी अमंगल-भावना! छिः!" सरला चौंक पड़ी। आज तक शारदा क्या, किसी ने भी उसका ऐसा तिराकार नहीं किया था। पहले तो वह शारदा की ओर भौंचक-सी देखती रही। फिर यह देखकर कि शारदा के मुख पर अत्यंत कठोर दृढ़ता विराजमान है, वह नीचा सिर करके रो उठी। उसने धीरे से कहा―"अमंगल-भावना क्यों देवी! पर उन्हें कोई जानने-पहचाननेवाला भी तो नहीं है।"