पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१२३

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सोलहवाँ परिच्छेद

कुछ देर तक सरला अचरज से शारदा का मुँह देखती रही। फिर बोली―"क्या आप सत्य कहती हैं?"

शारदा उठ खड़ी हुई, और उसने पकड़कर कहा―"मेरे साथ आ।" दोनो दूसरे कमरे में गईं। यह वही कमरा था, जहाँ दोनो का पहलेपहल मिलाप हुआ था। शारदा भूदेव के चित्र के पास खड़ी होकर बोली―"इस चित्र को तो देख।"

"इसे तो कितनी ही बार देखा है!"

"पहचाना भी या नहीं? किसका है?

सरला के पेट में हौल उठ रही थी। उसने कहा―"नहीं, यह कौन हैं?"

"तुम्हारे पिता और मेरे स्वामी।"

सरला अवाक् रह गई। उसने पागलों को तरह कहा―"यह क्या? यह क्या?" अब शारदा से न रहा गया। उसने खींचकर उसे छाती से लगा लिया, और वह फूट-फूटकर रोने लगी।

शारदा ने उसका हाथ पकड़कर कहा―"अब समय आ गया है कि सारी बातें तुझे सुना दूँ। आ, ध्यान से सुन।" यह कहकर दोनो बैठ गईं। कुछ ठहरकर शारदा ने एक काँपती-काँपती श्वास ली। फिर कहना प्रारंभ कर दिया―

"पचास वर्ष से ऊपर हुआ, यहाँ प्रयाग के दारागंज में देवकरन नामक बड़े भारी कोठीवाने रहते थे। उनका लाखों