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हृदय की परख

का कार-बार था। वह बड़े साधु और सज्जन पुरुष थे, पर उनके कोई संतान नहीं थी। मेरे पिता उनके प्रधान कारिंदे थे। मेरी माता के एक भाई थे। वह साधारण गृहस्थ की तरह देहात में अपना काम-काज चलाते थे। कुछ वैसे अमीर न थे। उनके एक कन्या हुई। इसी में उनकी स्त्री चल बसी। कन्या की आयु शेष थी, वह बच रही। अंत में ३ वर्ष की बालिका को अनाथ करके वह स्वयं भी चल बसे। तब मेरी माता के आग्रह से, और कोई उपाय न देखकर, उस कन्या को पिता अपने घर ले आए। उन दिनों मैं बहुत छोटी थी, दूध पीती थी। वह कन्या बड़ी चपल थी। हम दोनो शीघ्र ही हिल-मिल गईं।

"देवकरनजी पर पिताजी का बड़ा प्रभाव था। वह उन्हें बहुत मानते थे। जब उन्होंने मेरे मामा के मरने का हाल सुना, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ, और उस अनाथ बालिका पर उन्होंने बड़ा प्यार किया। जैसा मैं कह चुकी हूँ कि वह कन्या बड़ी सुंदर और चपल थी। वह सदा मुझे मारा करती थी―मेरी मिठाई छीनकर खा जाती थी। मैं सोचती थी, जाने दो, इसे ही खा लेने दो। कभी कभी जब मैं अपनी मा से उसके मारने-पीटने को या अत्याचार की बात कहती, तो वे मुझसे कहतीं―'बेटा, तेरा तो यह घर ही है; यह बे मा-बाप की है, इसकी चार बातें सह लेनी चाहिए। यह किससे फ़रियाद करेगी? बेचारी के न मा है, न बाप।' ऐसी