पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१४४

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हृदय की परख "वहाँ ?' "घर ।" "घर !" "व्याह करने ?" "देखता हूँ, क्या प्रबंध किया गया है। एक बार पिताजी को समझाऊंगा।" "क्या समझाओगे?" "कह तो चुका कि वह तुम्हारे साथ व्याह की अनुमति दे दें, तो-" "पर तुम्हें तो अनुताप हो रहा है। अभी तो तुमने उस भूल के लिये क्षमा मांगी है।" "हाँ, पर आप मेरा भाव समझीं नहीं। अस्तु, पर अब समय नहीं है । मैं आपको अपने विचार फिर लिखगा।" सरला ने दर्प के साथ कहा-"नहीं, आपको पत्र लिखना नहीं होगा. पर मेरी एक उचित प्रार्थना माननी होगी।" "क्या ? जल्दी कहिए, समय नहीं है।" "आप अपना नाम बदल लें।" इस बार सरला का मुख युवक से देखा नहीं जाता था। उस तेज को वह सहन न कर सका। कुछ काल तक मुग्ध की तरह खड़े रहकर उसने कहा-"आप शांत हों, और मुझे आज्ञा दें, मैं चला जाऊँ।"