पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१७

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दूसरा परिच्छेद - प्रभात हो गया। पक्षी चहचहाने लगे। गाँव के लोग गीत गाते-गाते हल-बैल लेकर खेत को चल दिए | पर सवार अभी तक न आया-वह बालक वहीं उसी झोपड़ी में पड़ा रहा । लोकनाथ अत्यंत उद्विग्न होकर उसकी बाट जोह रहा था । गली में वर्षा का पानी भर रहा था । उसमें किसी किसान के ढोर के पैरों की छप-छप ध्वनि सुनकर ला कनाथ दौड़कर खिड़की से झाँकने लगा कि कहीं वही तो नहीं आ रहा है। दिन चढ़ आया-वह बीत भी गया। रात आई- फिर दिन निकला, पर सवार का कहीं पता नहीं। धीरे-धीरे दिन-पर-दिन बीतने लगे, पर सवार के आने के कोई लक्षण नहीं देख पड़े । लोकनाथ ने उसकी आशा त्याग दी। वह उस कन्या को अपनी पुत्री के समान पालने लगा । उसने उसे अपनी पुत्री ही प्रसिद्ध कर दिया। लोकनाथ का विवाह नहीं हुआ था । गाँव के लोगों में इस बात को लेकर तरह-तरह की अफवाहें प्रसिद्ध थीं। जो हो, पर उसने अपनी सारी आयु ब्रह्मचर्य पूर्वक ही व्यतीत कर दी थी। ऐसी दशा में जैसा कि बहुधा होता है कि अविवाहित पुरुष संयम से न रहकर किसी-न-किसी स्त्री के गुप्त प्रेम में