५५ दूसरा परिच्छेद गुंजान की तरह मन कोलहरा देती थी। बूढ़े से बातें करते-करते सरला जब ताली बजाकर सरलता से हँस देती, तब उसके कुद-कली के समान धवल दाँतों की शोभा देखते ही बनती थी। गाँववाले सभी उससे बातें करना चाहते थे, पर बातचीत उसे पसंद नहीं थी। फिर भी उससे जो कोई बोलता, वह बड़े ही मधुर और सरल स्वर से ऐसे अपनावे के साथ बातें करती कि बातें करनेवाला मंत्र मुग्ध हो जाता। पर उसे जो आनंद वृक्षों की झूमती हुई टहनियों और पर्वतों की मूक श्रेणियों को चुपचाप निहारने में आता था, वह जगत् के साथ अपनी तंत्री बजाने में नहीं। उसके स्वभाव को सभी जानते थे, पर उसे कोई रोकता नहीं था। उसकी इच्छा में आघात पहुँचाना किसी को अच्छा न लगता था । यदि घर की किन्हीं वस्तुओं से उसे प्रेम था, तो अपने पिता के गाय-भैंस-बछड़ों से, फुलवारी से और हरे-हरे लह- लहाते खेतों से । वह बड़े प्रेम और यत्न से उन्हें पानो पिलाती, पुचकारती और चारा खिलाती थी। कभी-कभी वह जंगल से अपने हाथों से घास छोल लाती और उन्हें खिलाती थी। लोकनाथ जब गाय दुहने बैठता, तो सरला उसके आगे खड़ी होकर उसके माथे को सहलाती रहती, और गाय चुप- चाप बछड़े को चाटती रहती । उसे देखते ही गाय और बछड़े माँ-माँ करके चिल्ला उठते, और जब तक सरला उनके पास जाकर न पुचकारती, चुप न होते ।
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