तीसरा परिच्छेद बूढ़े लोकनाथ के परिवार में सरला को छोड़कर एक दूर के रिश्तेदार का लड़का था। यह अपने माता-पिता के मर जाने पर ११ वष की अवस्था में लोकनाथ की शरण में आ गया था । पर सरला को उसके साथ बहुत कम खेलना नमीब हुआ था ; क्योंकि एक तो उसकी प्रकृति वैसे ही खेलने-कूदने से प्रतिकूल थी, दूसरे वह पास के क़स्वे में जहाँ पढ़ रहा था; वहाँ ही पढ़ता रहा। उसके पीछे वह कॉलेज में पढ़ने लगा था। वह कभी- कभी छुट्टियों में घर आया करता और दो चार दिन घर रह- कर चला जाता था। उसके शील और स्वभाव की लोकनाथ बड़ी प्रशंसा करता था, इसलिये जब वह कॉलेज से घर आता, तब सरला बड़े आदर और प्रेम से उसका स्वागत करती और तन-मन से सत्कार करती थी। कुछ तो इस व्यवहार से और कुछ उसके देव-दुर्लभ गुणों और रूप-माधुरी से युवक का जी सरला की ओर ऐसा खिंच गया कि उसे सदा ऐसी मूर्ति को देखते रहने की लालसा रहने लगी। कॉलेज की पुस्तकों में, कमर की दीवारों में, वन-उपवन के पुष्पों और लहलहाती शाखाओं में सर्वत्र ही उसे वही सुहा- वनी मूर्ति देख पड़ने लगी। छुट्टी में जब वह घर माता, तब
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